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जैन दर्शन और परामनोविज्ञान तेजालेश्या के विकास-स्रोत
तेजोलेश्या के विकास कोई एक ही स्रोत नहीं है। उसका विकास अनेक स्रोतों से किया जा सकता है। संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति, उपासना, तपस्या आदि आदि उसके विकास के स्रोत है। इन विकास-स्रोतों की पूरी जानकारी लिखित रूप में कहीं भी उपलब्ध नहीं होती। यह जानकारी मौलिक रूप में आचार्य शिष्य को स्वयं देते थे।
गोशालक ने महावीर से पूछा--भंते ! तेजोलेश्या का विकास कैसे हो सकता है?' महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का ज्ञान कराया। उन्होंने कहा- 'जो साधक निरन्तर दो-दो उपवास करता है, पारणा के दिन मुठ्ठीभर उड़द या मूंग खाता है और एक चूल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊंचीकर सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता है।'
तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैं१. आतापना-सूर्य के ताप को सहना। २. क्षांति-क्षमा-समर्थ हुए भी क्रोध-निग्रहपूर्वक अप्रिय व्यवहार को सहन
करना।
३. जल-रहित तपस्या करना। परामनोविज्ञान में मन:प्रभाव (साइकोकाइनेसिस)
मन द्वारा पदार्थ के सीधे प्रभावित करने की क्रिया को मन:प्रभाव (साइकोकाइनेसिस) कहा गया है। बाह्य जगत् में मानवीय कार्यों के प्रति सामान्य मान्यता यही है कि प्रत्येक पदार्थ कार्य के लिए दैहिक अवयवों, यथा मस्तिष्क, स्नायुओं, मांसपेशियों व कर्मेन्द्रियों का होना अनिवार्य है। किन्तु जब कोई क्रिया बिना दैहिक माध्यम के, मन द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करके सम्पन्न होती हो, तो उसे 'परामनोविज्ञान' की श्रेणी में ही रखना होगा।
बिना दैहिक (एंद्रियिक) माध्यम के मन द्वारा सीधे ही प्रत्यक्षण कर सकने की क्षमता का विवेचन कर चुके हैं। अब यह देखें कि मन के द्वारा सीधे पदार्थ को प्रभावित करने की क्षमता के बारे में परामनोविज्ञानी दृष्टि से क्या कहा जा सकता
है।
___ एक सुबह की बात है। आइरीन नामक एक युवती अपने कमरे में अभी नींद में ही थी कि उसके साथ उसी कमरे में रहने वाली उसकी सहेली कुछ खरीददारी के लिए बाजार चली गई। जब वह बहुत सारा समान लेकर लौटी, तो उसने सोचा कि वह नीचे से ही घंटी बजा दे, ताकि जब वह ऊपर पहुंचे, तो उसे कमरे का दरवाजा खुला मिले। यह सोचते-सोचते वह नीचे के दरवाजे को पार कर
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