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जैन दर्शन और विज्ञान में अमूर्त अचेतन विश्व-मीमांसा
२६१ हो जाता है कि आकाशास्तिकाय नामक तत्त्व की जो धारणा जैन दर्शन में है, उसकी पूर्ति वैज्ञानिकों की आकाश, क्षेत्र या ईथर-सम्बन्धी धारणा नहीं कर सकती।
अब 'चतमितिक आकाश-काल की सततता' की धारणा को लें। इसके विषय में आइन्स्टीन के विचारों को समझना कठिन है। जैसे कि पहले बताया जा चुका है, वे इसे वस्तु-सापेक्ष वास्तविकता के रूप में मानते हैं। विश्व क्या है? इस प्रश्न का उत्तर वे यही देते हैं कि विश्व चतुर्वैमितिक आकाश-काल की सततता है। विश्व पदार्थों से नहीं, घटनाओं से बना हुआ है और ये घटनाएं इस चतुर्वैमितिक आकाश-काल की सततता की ही विविध अवस्थाएं हैं। इस प्रकार का विवेचन अत्यन्त ही उलझनपूर्ण लगता है। एक ओर से यह माना जाता है कि पदार्थ अपनी संहति के कारण चतुर्वैमितिक सततता में वक्रता उत्पन्न कर देता है-“जिस प्रकार सागर में तैरती मछली अपने आस-पास के पानी को आंदोलित कर देती है, उसी तरह एक तारा, पुच्छलतारा या ज्योतिर्माला उस आकाश-काल की सततता में जिसमें होकर वे गति करते हैं, परिवर्तन ला देते हैं।' दूसरी ओर उन पदार्थों को ही उस सततता की अवस्था का रूप माना जाता है। इस प्रकार चतुर्वैमितिक सततता का तत्त्व-मैमासिक दृष्टि से अस्पष्ट प्रतिपादन हुआ है। यह स्पष्ट अभिमत है कि आकाश-काल की चतुवैमितिक सततता से यह तात्पर्य निकालना कि काल आकाश की ही विमिति है, गलत होगा। जैन दर्शन का प्रतिपादन इस विषय में स्पष्ट है। पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल को भिन्न मानकर चलने पर आपेक्षिकता के सिद्धान्त के साथ कोई विरोध प्रतीत नहीं होता। पुद्गलास्तिकाय के संहति, गति आदि गुणों का आकाशास्तिकाय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैन दर्शन के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पौद्गलिक प्रभावों से उत्पन्न होने वाले गुरुत्व-क्षेत्र आदि भी पौद्गलिक होने चाहिए। अत: उसमें होने वाले परिवर्तन पुद्गल से ही सम्बन्धित हैं; इसका आकाश के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।
बर्टेण्ड रसल द्वारा प्रतिपादित आकाश-सम्बन्धी सिद्धान्त वैज्ञानिकों की उलझन को और स्पष्ट कर देता है। एक तात्त्विक विवेचन के निष्कर्ष रूप में उन्होंने लिखा है-“इस तरह दो प्रकार के आकाश हो जाते हैं-एक तो ज्ञाता-सापेक्ष आकाश और दूसरा वस्तु-सापेक्ष आकाश । एक हमारे अनुभव द्वारा ज्ञात और दूसरा केवल अनुमानित या प्रकल्पित। किन्तु इस अपेक्षा से आकाश और विषय-ग्रहण के अन्य पहलुओं-जैसे रंग, शब्द आदि में कोई फर्क नहीं है। सब के सब अपने ज्ञातासापेक्ष रूप में कार्यकरणवाद के द्वारा प्रकल्पित होते हैं। वर्ण, शब्द और गन्ध के हमारे ज्ञान से आकाश के हमारे ज्ञान को किसी भी कारण से भिन्न नहीं माना जा सकता।" रसल द्वारा प्रतिपादित इन दो प्रकार के आकाशों का अनुभव-ग्राह्य (पर्सेप्चुअल)
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