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हो । इस प्रकार किसी ऐसे द्रव्य की कल्पना करनी पड़ती है, जो
१. स्वयं गतिशून्य हो;
२. समस्त लोक में व्याप्त हो;
३. दूसरे पदार्थों की गति में सहायक हो सके।
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ऐसा द्रव्य धर्मास्तिकाय ही है । यहां यदि धर्मास्तिकाय का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार न करके आकाश द्रव्य को ही इन लक्षणों से युक्त माना जाए, तो भी एक बड़ी कठिनाई उपस्थित होती है । क्योंकि यदि आकाश द्रव्य ही पदार्थों की गति में सहायक हो, तो आकाश असीम और अनन्त होने के कारण गतिमान् पदार्थों की गति भी अनन्त आकाश शक्य हो जाती है- उनकी गति अबाधित हो जाती है । परिणामस्वरूप अनन्त आत्माएं और अनन्त जड़ पदार्थ अनन्त आकाश में निरंकुशतया गति करने लग जाते हैं और उनका परस्पर संयोग होना और व्यवस्थित, सांत और निर्वासित विश्व के रूप में लोकाकाश का होना, असम्भव हो जाता है । किन्तु इस विश्व का रूप व्यवस्थित है, विश्व एक क्रमबद्ध संसार (Cosmos) के रूप में दिखाई देता है, न कि अव्यवस्थित ढेर (Chaos ) की तरह। ये तथ्य हमें इस निर्णय पर ले जाते हैं कि विश्व की व्यवस्था का आधार किसी स्वतंत्र नियम पर है । परिणामस्वरूप हमें यह निर्णय करना पड़ता है कि पदार्थों की गति - अगति में सहायक आकाश नहीं, अपितु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक स्वतंत्र द्रव्य है ।
जैन दर्शन और विज्ञान
जिस प्रकार गति- स्थिति के निमित्त के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्यों की उपधारणा (पोस्च्युलेशन) आवश्यक है, उसी प्रकार लोक- अलोक के विभाजन में भी इनको माने बिना तर्कसम्मत समाधान नहीं मिलता। जैसे कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है; 'लोक सीमित है और उससे आगे अलोक - आकाश असीम है। इसलिए पदार्थों की और प्राणियों की व्यवस्थित रूपरेखा को बनाए रखने के लिए आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व होना चाहिए- यदि गति और अगति का माध्यम आकाश ही है, तो फिर अलोक - आकाश का अस्तित्व ही नहीं रहेगा और लोक व्यवस्था का भी लोप हो जाएगा।' लोक और अलोक का विभाजन एक शाश्वत तथ्य है; अत: इसके विभाजक तत्त्व भी शाश्वत होने चाहिए । कृत्रिम वस्तु से शाश्वत आकाश का विभाजन नहीं हो सकता; अत: ऊपर बताये गऐ छः द्रव्यों में ही विभाजक तत्त्व हो सकते हैं। यदि हम आकाश को ही विभाजक मानें तो यह उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि आकाश स्वयं विभज्यमान है, अत: वह विभाजन के हेतु नहीं बन सकता। यदि काल को विभाजक तत्त्व माना जाए तो भी तर्क-संगत नहीं होता, क्योंकि काल वस्तुतः (निश्चय दृष्टि से ) तो जीव और अजीव की पर्याय मात्र है । यह केवल औपचारिक द्रव्य है । व्यावहारिक लोक के सीमित क्षेत्र में ही विद्यमान है, जबकि नैश्चयिक काल लोक और अलोक
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