Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 330
________________ ३१५ जैन दर्शन और विज्ञान में पुद्गल सोने में बदला जा सकता है। पुद्गल में यदि गलन धर्म या वियोजक शक्ति का अभाव होता, तो सब परमाणुओं का पिंड बन जाता और यदि मिलन धर्म या संयोजक शक्ति का अभाव होता, तो एक-एक परमाणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते। इस प्रकार के गलन-मिलन धर्म की विशेषता से ही समस्त पौद्गलिक जगत् के परिवर्तन हमारे सामने आते हैं। विभिन्न परमाणुओं के संयोग (मिलन) से और विखण्डन (गलन) से इस प्रकार स्कंधों का हो सकता है (क) दो परमाणुओं के संयोग से दो परमाणुवाले एक स्कंध का निर्माण होगा, इसे द्वि-प्रदेशी स्कंध कहा जाता है। द्वि-प्रदेशी स्कंध के विखण्डन से दो परमाणु बनेंगे। (ख) तीन परमाणुओं के संयोग से-(i) त्रि-प्रदेशी स्कंध बनेगा अथवा - (ii) द्वि-प्रदेशी स्कंध+एक परमाणु यह द्विप्रदेशी स्कंध तीन प्रकार से संभव हो सकता है-जैसे यदि तीन परमाणु अ, ब, स है, तो एक विकल्प-अब+स दूसरा विकल्प-अस+ब तीसरा विकल्प-बस+अ इस प्रकार कुल चार संभावनाएं हैं। १. विज्ञान के अनुसार संसार में मूल तत्त्व ९२ हैं। हाइड्रोजन से लेकर यूरेनियम तक इन ९२ तत्त्वों में सोना, चांदी, लोहा, पारा आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है। इनके अणुओं की संरचना भिन्न-भिन्न होने से इनके स्वरूप एवं गुणधर्मों में भिन्नता रहती है। जैसे हाइड्रोजन का अणुभार केवल एक (इकाई) होता है, तो यूरेनियम का अणु-भार २३५ होता है। यह भार अणु के केन्द्र में रहे संहतिवाले लघुकणों के कारण होता है। परिधि पर घुमने वाले लघुकणों में भार नगण्य होता है। केन्द्रक कणों में प्रोटोन एवं न्यूट्रोन होते हैं तथा परिधि के कण इलेक्ट्रोन कहलाते हैं। पारे का अणु-भार २०० है। उसमें एक प्रोटोन और मिलाया जाय, तो उसका भार २०१ हो जाएगा। ऐसा करने पर एक अल्फा कण का विकिरण उस अणु से बाहर निकल जाता है, जिसका भार ४ होता है। ऐसा होने से पीछे अणुभार १९७ बचता है, जो सोने के एक अणु का भार है। अर्थात् पारा सोने में बदल गया। प्राचीन युग में भी पारे से सोना बनाने की विधियां थीं, ऐसा उल्लेख मिलता है। यद्यपि इस विधि का पूरा ज्ञान अब उपलब्ध नहीं है, फिर भी यह स्पष्ट है कि आणविक विस्फोट की स्थिति पैदा करने से यह हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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