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विश्व का परिमाण और आयु - अनादि विश्व की कल्पना को स्वीकार करना ही पड़ेगा, इस बात को स्पष्ट
करते हुए, 'विश्व की आदि' नामक प्रकरण में लिंकन बारनेट लिखते हैं, “विश्व के निर्माण का चिन्तन, विश्व की आदि को अनन्त भूत में ढकेल देता है। यद्यपि वैज्ञानिकों के द्वारा नाना सिद्धांत से तारापुंज, तारा, तारा-रज, अणु और अणु के सूक्ष्म अवयवों का निर्माण भी गाणितिक विधि से समझाया गया है, फिर भी प्रत्येक सिद्धांत को एक अनुमान या कल्पना का आधार लेना पड़ता है कि इससे पूर्व कुछ विद्यमान था’ चाहे वह 'कुछ' स्वतन्त्र-विहारी न्यूट्रोन के रूप में हो, चाहे विकिरण के रूप में हो अथवा अकल्पनीय 'विश्व-उपादान' के रूप में हो, उसी में से इस बहुरूपधारी विश्व का निर्माण हुआ है।
___ इस प्रकार अब तक विवेचित सिद्धांत प्राय: एक या दूसरे रूप से इस तथ्य को तो स्वीकार करते ही हैं कि यह विश्व शाश्वत अर्थात् अनादि और अनन्त
है।
स्थिरावस्थावान् विश्व (Steady State Universe)-नव्यतम प्रचलित सिद्धांतों में एक सिद्धांत, जो स्थिरावस्थान विश्व' की कल्पना करता है, का विवेचन करना भी बहुत उपयोगी होगा। यह सिद्धांत भी शाश्वत विश्व के विचार को ही स्वीकार करता है। यह सिद्धांत फ्रेड होयल, थोमस गोल्ड आदि वैज्ञानिकों के द्वारा रखा गया है। इसके अनुसार यद्यपि विश्व विस्तृत हो रहा है, फिर भी उसमें नई जड़-राशि उत्पन्न हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप विश्व स्थित जड़-राशि की संहति बढ़ती है, किन्तु विश्व-विस्तार के कारण नए जड़ की उत्पत्ति होने पर भी, विश्व में जड़ की घनता स्थिर रह जाती है।
इस सिद्धांत को समझाते हुए फ्रेड होयल लिखते हैं, “विश्व विस्तार के सम्बन्ध में एक प्रश्न उठता है कि यदि दूरस्थ आकाशगंगाएं एक-दूसरे से दूर जा रही हैं, तो आकाश अधिक से अधिक रिक्त क्यों नहीं होता? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत सिद्धांत के अनुसार यह है कि विश्व में नई आकाशगंगाएं, आकाशगंगाओं के नए गुच्छ (clusters) निरन्तर बन रहे हैं। उनका निर्माण विस्तारमान आकाशगंगाओं के दूरीकरण से जनित रिक्ताकाश को पुन: भर देता है। परिणामस्वरूप आकाश की स्थिति जैसी पहले थी, वैसी रह जाती है।"३
१. दी यूनिवर्स एण्ड डा० आइन्स्टीन, पृ० ११५ । २. दी युनिटी ऑफ दी यूनिवर्स, पृ० १४३ । ३. इसके लिए देखें, 'दी यूनिवर्स' पुस्तक में फेड होयल द्वारा लिखित निबन्ध 'दी स्टैडी स्टेट
यूनिवर्स' पृ० ७७।
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