Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 339
________________ ३२४ जैन दर्शन और विज्ञान परमाणु की विस्तृत व्याख्या १. नामकरण-परमाणु शब्द परम+अणु से बना है। अणु का अर्थ है-किसी भी पदार्थ का छोटा भाग। परम का अर्थ है अन्तिम । अन्तिम छोटे-से-छोटा हिस्सा परमाणु है। २. द्रव्य की दृष्टि से-परमाणु पुद्गलास्तिकाय द्रव्य है। उसमें गुण और पर्याय दोनों होते हैं। संख्या की दृष्टि से परमाणु अनन्त है। ३. क्षेत्र की दृष्टि से-एक परमाणु आकाश के एक प्रदेश का अवगाहन करता है, एक से अधिक प्रदेशों का अवगाहन नहीं कर सकता। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर परमाणु का अस्तित्व है। अलोकाकाश में परमाणु का अभाव है। ___४. काल की दृष्टि से-प्रत्येक परमाणु अनादि काल से अस्तित्व में था और अनन्तकाल तक उसका अस्तित्व रहेगा। अत: परमाणु का अस्तित्व सदा बना रहता ५. गण की दृष्टि से-एक परमाणु में केवल एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श ही होते हैं। इस आधार पर ५ वर्ण, २ गंध, ५ रस में से एक-एक वर्ण, गंध और रस, तथा चार स्पर्शों में से दो-दो स्पर्श होने से मूलत: ५x२x५४४ - २००० प्रकार के परमाणु हो सकते हैं। परन्तु वर्ण आदि की मात्रा या गुण (unit) की तरतमता के कारण उसके अनन्त प्रकार हो जाते हैं। ६. रूपत्व-परमाणु वर्ण आदि गुण-युक्त है; इसलिए मूर्त या रूपी है; पर सूक्ष्म होने के कारण इंद्रिय-ग्राह्य नहीं है। ७. संख्या-लोक में जितने परमाणु हैं, उतने ही सदा रहते हैं। न एक नया परमाणु बन सकता है, और न एक विद्यमान परमाणु नष्ट हो सकता है। ८. तत्त्व मीमांसा की दृष्टि से-परमाणु सत् है; उत्पाद, व्यय, धौव्य युक्त है। उसका वस्तु सापेक्ष (objective) अस्तित्व है। वह केवल काल्पनिक या ज्ञाता-सापेक्ष नहीं है। . ९. भूमिति की दृष्टि से-परमाणु अविम (dimensionless) है, वह अरूपी नहीं। वह भूमितिक बिन्दु है। एक आकाश प्रदेश का अवगाहन करता है। १०. परिणमन की दृष्टि से-परमाणु सत् है; इसलिए परिणमनशील है, उसके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुणों में परिणमन होता है। अकेले परमाणु के सारे परिणमन वैस्रसिक ही होते हैं, प्रायोगिक नहीं। जब तक परमाणु स्वतन्त्र दशा में होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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