Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 307
________________ २९२ जैन दर्शन और विज्ञान उत्पत्ति की परिकल्पना की जाती है, तो उसका यही तात्पर्य हो सकता है कि पहले से ही विद्यमान परमाणुओं के द्वारा अष्टस्पर्शी स्कन्धों का नव-निर्माण होता है। इस प्रकार, वस्तुत: 'नया जड़' उत्पन्न नहीं होता, पर संहति-शून्य अवस्था में पहले से ही विद्यमान पुद्गल का रूपांतर संहतिमान् अवस्था में हो जाता है। इसी प्रकार जहां विद्यमान जड़ के नाश की परिकल्पना की गई है, वहां भी यही तात्पर्य हो सकता है कि संहतिमान् अवस्था में रहे पुद्गल-स्कंध संहति-शून्य अवस्था में परिणत होते हैं। यदि आकाश-गंगाओं की गति का तात्पर्य समग्र विश्व का विस्तार न लेकर केवल कुछ आकाश-गंगाओं के एक-दूसरे से दूर जाना ही हो, तो स्थायी-अवस्थावान विश्व-सिद्धांत जैन दृष्टिकोण के साथ काफी संगत हो जाता है। विस्तार के बाद संकोच और संकोच के बाद विस्तार-इस रूप में आकाश-गंगाओं की गति व प्रतिगति के क्रम की भी परिकल्पना की गई है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि आकाश-गंगाओं की गति-प्रतिगति के साथ स्कन्ध-निर्माण के स्कन्ध-ध्वंस का क्रम चलता रहता हो और विस्तार से जनित रिक्तता व संकोच से जनित बहुलता की परिणति की पूर्ति होती रहती हो। इस प्रकार, अनन्त-काल तक ध्वंस-निर्माण के साथ-साथ स्थायी अवस्था बनी रहती हो। यह उल्लेखनीय है कि सन् १९६४, जून में होयल के साथ भारतीय युवा वैज्ञानिक जयन्त विष्णू नारलीकर ने गणितीय आधारों पर एक नया विश्व-सिद्धांत प्रस्तुत किया है, जिसमें स्थायी-अवस्थावान् विश्व-सिद्धांत को ही नया रूप दिया गया है। प्रस्तुत संहित-शून्य पदार्थ की परिकल्पना उक्त सिद्धांत के लिए काफी महत्त्वपूर्ण हो सकती है। आरोह-अवरोहशील विश्व और अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-प्रवाह के साथ विश्व-प्रक्रियाओं में आरोह-अवरोह आते रहते हैं। यह निरूपण वैज्ञानिकों के द्वारा स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व', 'अति-परिवलीय विश्व' और 'चक्रीय विश्व' के सिद्धांतों के रूप में किया गया है। दूसरी ओर जैन दर्शन के अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल-चक्र का सिद्धांत इसी तथ्य का निरूपण करता है। इनमें परस्पर कहां तक समानता हो सकती है, इसकी चर्चा उपयोगी होगी। स्वत: संचालित कम्पनशील विश्व की कल्पना विश्व-विस्तार के सिद्धांत पर आधारित है; अत: जैन दर्शन का जो मतभेद विश्व-आकाश के विषय में विस्तारमान १. होयल-नारलीकर सिद्धांत की घोषणा से पूर्व ही संहति-शून्य पदार्थ के अस्तित्व की सम्भावना का संकेत अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्यविद्या सम्मेलन, दिल्ली में ४ जनवरी, १९६४ को पढ़े गए 'स्पेस एण्ड टाइम इन जैन मैटाफिजिक्स एण्ड मोडर्न फिजिक्स' शीर्षक मुनि महेन्द्र कुमार के शोध-पत्र में किया जा चुका था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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