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जैन दर्शन और विज्ञान बदल सके? जैन दर्शन ने व्यक्ति को परिवर्तन का अधिकार दिया है। उसने कहा- हर आदमी बदल सकता है परिवर्तन कर सकता है। अगर परिवर्तन हो तो व्यक्ति की सारी साधना, तपस्या व्यर्थ बन जाए। इस बात में विश्वास नहीं किया जा सकता कि जो जैसा है वैसा ही रहेगा। जिसका स्वभाव जैसा है वैसा ही रहेगा। ऐसा वह मान सकता है, जिसने परिवर्तन को अस्वीकार किया है।
जैन दर्शन परिवर्तन और प्रगति को स्वीकार करता है, इसलिए उसमें तपस्या और साधना का मूल्य है । यदि उन्हें अस्वीकार किया जाए तो तपस्या और साधना का मूल्य समाप्त हो जाता है। क्रोध, अहंकार, लोभ, अभिमान, माया, भय, कामवासना आदि-आदि मोहकर्म के विकार हैं उन सबको बदला जा सकता है, उनमें परिवर्तन किया जा सकता है। यह व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है । इसी आधार पर साधना की पद्वति का विकास हुआ। तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय--इनका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है । यह परिवर्तन का सिद्धांत नहीं होता तो साधना और तपस्या का कोई अर्थ नहीं होता । ध्यान, स्वाध्याय और तपस्या-इन सबका विकास परिवर्तन के सिद्धांत के आधार पर हुआ है।
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परिवर्तन का आधार
परिवर्तन का आधार है - संकल्प की स्वतंत्रता । इस स्वतंत्रता ने ऐसा मार्ग दिया है, जिसमें न रूढ़िवाद के पनपने की जरूरत है, न निराशावाद के पनपने की जरूरत है और न पलायन की जरूरत है ।
जैन धर्म निरन्तर परिवर्तन की प्रक्रिया है । स्वयं को बदला जा सकता है, प्रत्येक क्षण बदला जा सकता है। इसी आधार पर स्वतंत्रता का सिद्धांत सार्थक बनता है ।
एकांगी धारणा
जैन दर्शन ने कर्मवाद के सिद्धांत को स्वीकार किया, किन्तु कर्मवाद ईश्वरवाद का स्थान नहीं ले सकता । ईश्वरवादी कहते हैं - ईश्वर की इच्छा के बिना कुछ भी नहीं होता, एक पत्ता भी नहीं हिलता । यदि जैन दर्शन यह मान ले कि कर्म के बिना कुछ भी नहीं होता तो ईश्वरवाद और कर्म के सिद्धांत में कोई अंतर नहीं रह पाता । कर्म स्वयं ईश्वर के स्थान पर बैठ जाता है ।
जो कुछ होता है वह सब कर्म से होता है। यह बिल्कुल एकांगी धारणा है | जैन दर्शन के अनुसार यह सही नहीं है, उचित नहीं है । कर्मवाद से सब कुछ नहीं होता। कर्म का स्थान सीमित है। एक सीमित स्थान में कर्म से कुछ होता है, किन्तु सब कुछ नहीं होता।
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