Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 315
________________ ८. जैन दर्शन और विज्ञान में (क) जैन दर्शन में पुद्गल 1 'पुद्गल' शब्द जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । जो वर्ण, स्पर्श, गन्ध और रस- इन गुणों से युक्त है, वह पुद्गल है। पुद्गल का आधुनिक पर्यायवाची शब्द जड़ अथवा भौतिक पदार्थ हो सकता है। किन्तु ऊर्जा, जो कि वस्तुत: जड़ का ही रूप है, पुद्गल के अन्तर्गत आ जाती है। पुद्गल 1 छह द्रव्यों में जीव को छोड़कर शेष पांचों ही द्रव्य अजीव हैं; पुद्गल भी अजीव है । वह चैतन्य- गुण से रहित है। । पुद्गल के सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश को परमाणु कहा जाता है। विश्व ( लोकाकाश) में परमाणुओं की संख्या अनन्त है और प्रत्येक परमाणु, स्वतन्त्र इकाई है। जब ये परमाणु परस्पर जुड़ते हैं, तब 'स्कन्ध' का निर्माण होता है । स्कन्ध में दो से लेकर अनन्त परमाणु हो सकते हैं । लोकाकाश के जितने भाग को एक परमाणु अवगाहित करता है, उतने भाग को 'प्रदेश' कहा जाता है । किन्तु पुद्गल की स्वाभाविक अवगाहन-संकोच - शक्ति के कारण लोकाकाश के एक प्रदेश में ‘अनन्त-प्रदेशी’' (अनन्त परमाणुओं से बना हुआ ) स्कन्ध ठहर सकता है I समग्र लोकाकाश में (जो कि असंख्यात प्रदेशात्मक है ) अनन्त 'अनन्त- प्रदेशी' स्कन्ध विद्यमान हैं। इस प्रकार द्रव्य - संख्या की दृष्टि से पुद्गल द्रव्य अनन्त हैं, क्षेत्र की दृष्टि से स्वतंत्र परमाणु एक प्रदेश का अवगाहन करता है और स्वतन्त्र स्कन्ध एक से लेकर असंख्यात प्रदेशों का अवगाहन करता है तथा समग्र पुद्गल द्रव्य समस्त लोक में व्याप्त हैं; काल की दृष्टि से अनादि और अनन्त हैं; स्वरूप की दृष्टि से वर्ण, स्पर्श आदि गुणों से युक्त, चैतन्य - रहित और मूर्त हैं । पुद्गल का नामकरण / परिभाषा पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति है - पुद् गल । पुद् = पूरण अर्थात् संघात यानी संयुक्त यानी संयुक्त होना (Fusion ) और गल = अर्थात् भेद यानी वियुक्त होना (fission) । केवल वह पदार्थ ही पुद्गल है जिसमें संश्लिष्ट और विश्लिष्ट होने की क्षमता है। छह द्रव्यों में केवल पुद्गल द्रव्य में ही यह क्षमता है, अन्य पांच द्रव्यों में नहीं। जो द्रव्य प्रति समय मिलता - गलता रहे, बनता - बिगड़ता रहे, टूटता - जुड़ता रहे; वह पुद्गल है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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