Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 337
________________ ३२२ परमाणु की परिभाषा परमाणु को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है। १. परमाणु समस्त भौतिक अस्तित्व का मूल आधार है-जिसे अन्तिम उपादान (ultimate building block) कहा जा सकता है । जैन दर्शन और विज्ञान २. अछेद्य, अभेद्य, अग्राह्य और निर्विभागी पुद्गल - खण्ड को परमाणु कहते हैं। परम+अणु-परमाणु का तात्पर्य है - वस्तु का अन्तिम अविभाज्य अंश । वह दो प्रकार का है-निश्चय-परमाणु ( absolute ultimate atom) और व्यवहार परमाणु (emirical atom)। वास्तविक सूक्ष्मतम परमाणु निश्चय - परमाणु है; व्यावहारिक परमाणु अनन्त सूक्ष्मतम परमाणुओं का समुदय है । आधुनिक विज्ञान जिसे अणु (atom) की संज्ञा देता है, वह विभाज्य है; अत: उसे केवल व्यावहारिक परमाणु की कोटि में रखा जा सकता है । व्यावहारिक परमाणु साधारण दृष्टि से अग्राह्य, अछेद्य, अभेद्य आदि रूप है, अत: साधारण शक्ति या बल (force) या अस्त्र-शस्त्र से वह तोड़ा नहीं जा सकता। उसकी परिणति सूक्ष्म होती है। जो नैश्चयिक परमाणु है, वह इन्द्रियातीत ज्ञान का ही विषय बन सकता है, इन्द्रिय ज्ञान का नहीं । I ३. परमाणु को एक विशुद्ध ज्यामितिक बिन्दु के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि वह अनर्ध (जिसका कोई मध्य-बिन्दु न हो) और अप्रदेशी है । उसमें न लम्बाई है, न चौड़ाई, न गहराई - वह अविम (dimensionless ) है । वह अन्तिम और शाश्वत इकाई है। ४. परमाणु वह है जिसका क्षेत्रिय दृष्टि से आदि, मध्य, अन्त एक है - या जो अनादि, अमध्य, अनन्त है । उसमें स्पर्श आदि गुणों की विद्यमानता होने पर भी इन्द्रियां उसे ग्रहण नहीं कर सकती । ५. परमाणु वह है जिसमें ५ वर्णों में से एक वर्ण है; २ गन्धों में से एक गन्ध है; ५ रसों में से एक रस है; ८ स्पर्शो में से केवल २ स्पर्श हैं- स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण । वह शब्द का कारण है, पर स्वयं शब्द नहीं है। जो स्कन्धों का निर्माण करता है, पर स्कन्ध नहीं है । परमाणु के स्वरूप को इस प्रकार समझाया गया है १. परमाणु समस्त भौतिक जगत् का मूल कारण है । २. वह भौतिक जगत् की अन्तिम परिणति है । १. कारणमेव तदन्त्य, नित्यः सूक्ष्मश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णों, द्विस्पर्श: कार्यलिंगश्च ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358