Book Title: Jain Darshan aur Vigyan
Author(s): Mahendramuni, Jethalal S Zaveri
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 312
________________ विश्व का परिमाण और आयु २९७ २. विज्ञान - जगत् में 'आकाश' और 'विश्व' के बीच में कोई अन्तर नहीं है । इसके परिमाण के विषय में दो मत हैं : १. विश्व ( आकाश ) सान्त है । २. विश्व (आकाश) अनन्त है । जैन दर्शन विश्व और आकाश को सर्वथा एक नहीं मानता। 'विश्व' को 'आकाश' का एक भाग मानता है। इसके अनुसार : १. आकाश (सम्पूर्ण) अनन्त है । २. विश्व (लोकाकाश) सान्त है । ३. अलोकाकाश अनन्त है । ' ३. 'विश्व सान्त है या अनन्त ?' इस प्रश्न को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक 'आकाश की वक्रता' की कल्पना करते हैं । जैन दर्शन इसका समाधान - ( १ ) ॠण-धन ईथर और ( २ ) आकाश के विभागीकरण के निरूपण से करता है 1 ४. 'विस्तारमान विश्व' का सिद्धान्त यद्यपि विज्ञान - जगत् में अधिक से अधिक मान्यता प्राप्त हो रहा है, फिर भी इसका स्थान 'असंदिग्ध' नहीं है । जैन दर्शन के आधार पर लोकाकाश का विस्तार असंभव है; वह आकाशीय पिण्डों की गति की संभावना से इन्कार नहीं करता । ५. विज्ञान - जगत् के अधिकांश सिद्धान्त और जैन दर्शन मानते हैं कि विश्व कल की दृष्टि से आदि - रहित और अन्त - रहित है । ६. वैज्ञानिकों का चक्रीय विश्व- सिद्धान्त और जैन दर्शन का 'काल चक्र' का सिद्धान्त परस्पर अधिक साम्य रखते हैं 1 ७. भौतिक विज्ञान का मूलभूत सिद्धान्त 'द्रव्य और शक्ति की सुरक्षा का नियम' और जैन दर्शन का मौलिक सिद्धान्त परिणामी - नित्यत्ववाद' एक ही तथ्य का उच्चारण करते हैं कि अनन्त परिणमनों के होते हुए भी पदार्थ शाश्वत है। यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि जैन दर्शन के विश्व - सिद्धान्त की तर्क-संगतता आज के वैज्ञानिकों को प्रभावित करने वाली है। निम्न तथ्य विशेषतः १. इसको सांकेतिक रूप में इस प्रकार लिखा जा सकता है : आकाश = लोक + अलोक आकाश-अनन्त लोक-सान्त अलोक- अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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