________________
१. धर्म क्या है ?
धर्म जीवन जीने की कला है। स्वयं सुख से जीने की तथा औरों को सुख से जीने देने की। सभी सुखपूर्वक जीना चाहते हैं, दुखों से मुक्त रहना चाहते हैं। परन्तु जब हम यह नहीं जानते कि वास्तविक सुख क्या है और यह भी नहीं जानते कि उसे कैसे प्राप्त किया जाय ? तो झूठे सुख के पीछे बावले होकर दौड़ लगाते हैं। वास्तविक सुख से दूर रहकर अधिकाधिक दुखी होते हैं । स्वयं को ही नहीं औरों को भी दुखी बनाते हैं।
वास्तविक सुख आन्तरिक शांति में है और आन्तरिक शांति चित्त की विकार-विहीनता में है, चित्त की निर्मलता में है। चित्त की विकार-विहीन अवस्था ही वास्तविक सुख-शांति की अवस्था है।
अत: सच्ची शांति और सच्चा सुख वही भोगता है जो निर्मल चित्त का जीवन जीता है । जो जितना विकारमुक्त रहता है उतना ही दुख-मुक्त रहता है, उतना ही जीवन जीने की सही कला जानता है, उतना ही सही माने में धार्मिक होता है । निर्मल चित्त का आचरण ही धर्म है। यही जीने की कला है। इसमें जो जितना निपुण है वह उतना ही अधिक धार्मिक है । धार्मिक की यही सही परिभाषा है।
प्रकृति का एक अटूट नियम है जिसे कोई ऋत कह ले अथवा धर्मनियामता कह ले, नाम के भेद से कोई अन्तर नहीं पड़ता। नियम यह है कि ऐसा किया जायगा तो उसका ऐसा परिणाम आयेगा ही। वैसा नहीं किया जायगा तो वैसा परिणाम नहीं आ सकता। कारणों के परिणामस्वरूप जो कार्य सम्पन्न होता है, उन कारणों के नहीं रहने से वह कार्य नहीं हो सकता ।