Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 36
________________ ६. धर्म का सही मूल्यांकन धर्म का सही मूल्यांकन करना सीखें। यदि सही मूल्यांकन करते रहेंगे तो दृष्टि सम्यक् रहेगी, नीर-क्षीर विभाजन-विवेक कायम रहेगा, धर्म-पथ पर अपना संतुलन बनाए रख सकेंगे । अन्यथा धर्म का कोई एक अंग आवश्यकता से अधिक महत्त्व पाकर धर्म-शरीर की सर्वांगीण उन्नति में वाधक बन जायेगा। सम्यक् दृष्टि यही है कि जिसका जितना मूल्य है उसको उतना ही महत्त्व दें। न अधिक, न कम । कंकड़-पत्थर, काँच, हीरा, मोती, नीलम, मणि सब का अपना-अपना महत्त्व है। मिट्टी, लोहा, ताँबा, पीतल, चाँदी, सोना, सबका अलग-अलग मूल्य है। जिसका जितना महत्त्व है उसका उतना ही मूल्य है। लोकीय क्षेत्र में काँच और हीरे का, मिट्टी और सोने का एक जैसा मूल्यांकन नहीं किया जाता । इसी प्रकार धर्म के क्षेत्र में सब धान पाँच पसेरी नहीं तोले जाने चाहिए। टके सेर भाजी, टके सेर खाजा का अविवेकी मूल्यांकन नहीं होना चाहिए । अन्यथा या तो किसी निस्सार छिलके को ही धर्म मान बैठेंगे अथवा धर्म के किसी नन्हें से प्राथमिक कदम को ही सब कुछ मानकर शुद्ध धर्म की उच्चतम अवस्थाएँ कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। __ मसलन, दान देना अच्छा है। धर्म का एक अंग है। परन्तु धर्म की कसौटी पर दान का भी अलग-अलग मूल्यांकन होना चाहिए। वित्तीय नहीं, नैतिक । दान अधिक है या कम इसका कोई महत्त्व नहीं होता। परन्तु देते समय चित्त की चेतना कैसी है, यही ध्यान देने की बात है। यदि उस समय चित्त में क्रोध, या चिड़चिड़ाहट या घृणा या द्वेष या भय या आतंक या बदले में कुछ प्राप्त करने की तीव्र लालसा है या यश की प्रबल कामना है अथवा प्रतिस्पर्धा का उत्कट भाव है तो ऐसा दान शुद्ध, निष्काम, निरहंकार चित्त से

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