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धर्म-दर्शन
है । जब हमारा मन दुर्गुणों में उलझता है और दूषित वृत्तियों की तरंगें पैदा करता है तो समस्त विश्व में व्याप्त वैसी दूषित तरंगों के साथ समरस होकर हमारे दुर्गुणों को और फलतः दुखों को बढ़ाता है । ठीक इसी प्रकार जब हमारा मन दुर्गुणों से मुक्त होकर निर्मल होता है, सद्गुणों से भरता है, सद्वृत्तियों की तरंगें प्रजनन करने लगता है तो अनंत विश्व में समायी हुई दृश्य-अदृश्य प्राणियों की, जो भी सात्विक देव-ब्रह्म हैं उनकी शुद्ध धर्ममयी सात्विक तरंगें हमसे आ मिलती हैं, हमें बल प्रदान करती हैं और हमारा सुख-संवर्धन करती हैं, संरक्षण करती हैं । यही नियम है, विधान है, जो प्रत्यक्ष अनुभूत किया जा सकता है ।
किसी भी देश का राज्यविधान उस देश का धर्म होता है— वैसे ही यह सार्वदेशिक, सार्वजनीन, सार्वकालिक विश्व - विधान, विश्व धर्म है । जब उस देश का नागरिक उस राज्यविधान के अनुसार जीवन-यापन करता है, विधान को तोड़ता नहीं, तो उसे विधायक के कुपित होने का कोई भय नहीं होता ! दूसरी ओर बिना प्रार्थना - पुकार के उसकी सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी राज्य की ही होती है । परन्तु जो विधान को, राज्य के कानून को कदम-कदम पर् तोड़ता है और विधायक या शासक को खुश रखने के लिए उसकी खुशामदें करता है, उसे फूल-पत्तियां चढ़ाता है तो ऐसा व्यक्ति न केवल अपनी बल्कि समस्त देश और समाज की सुख-शांति के लिए, व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित होता है । जिस देश के लोग राज्य के कानून का सजग होकर पालन करें, उस देश में, समाज में सुख-शांति विराजेगी ही । इसी प्रकार इस विशाल विश्व राज्य में भी विश्व-विधानरूपी धर्म - पालन के अतिरिक्त सुख-शांति हासिल करने का और क्या साधन हो सकता है ?
इसीलिए न केवल अपनी सुख-शांति के लिए, बल्कि सब की सुख-शांति के लिए धर्म धारण करें । विश्वविधान के अनुकूल जीवन जिएं और 'अटूट निष्ठा के साथ धर्मदर्शन के अभ्यास द्वारा चित्त को विकार - विहीन करने में लगें । इस अभ्यास में जो भी बाधाएं आएं, वे कितनी ही प्रिय लगने वाली क्यों न हों, वे हमारे मत-मतांतरों की रूढ़ मान्यताओं के कितनी ही अनुकूल क्यों न हों, उन्हें निर्ममतापूर्वक दूर करके “एकै साधे सब सधे " वाले अनन्यभाव से चित्तविशुद्धि का अनथक प्रयत्न करते ही रहें, करते ही रहें । अनंत के कण-कण में समाए हुए मंगलमय परम सत्य का यही विधान है ।
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