Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 85
________________ ७४ धर्म : जीवन जीने की कला मिथ्याधर्म के ही शिकार बने रहते हैं। सम्यक् धर्म हमसे कोसों दूर रहता है। समीप आए भी तो कैसे ? जब मिथ्या को ही सम्यक् मान बैठते हैं तो मिथ्या प्रमुख हो जाता है, सम्यक् गौण । अतः सम्यक् को समीप लाने का कोई प्रयत्न भी तो नहीं करते । काया, वाणी और चित्त के सभी कर्मों में धर्म समा जाय तो ही सम्यक् हो। यदि इसी को जीवन का चरम लक्ष्य मान कर अभ्यास में जुट जाएँ तो जितनीजितनी सफलता मिले, उतना-उतना लाभ हो। पूरी सफलता मिल जाय तो निस्संदेह पूरा लाभ हो। सर्वांगीण, सम्यक् धर्म को जीवन में उतारने का अभ्यास करते रहने में हमारा सही मंगल समाया हुआ है। बिना किसी जाति या सम्प्रदाय के भेदभाव के, सब का सही मंगल इसी में समाया हुआ है । देखें, धर्म का सर्वांगीण सम्यक् स्वरूप क्या है ? हमारी वाणी सम्यक् हो। वाणी सम्यक् तब होती है जबकि हम झूठकपट, गाली-गलौज, कटु-कठोर, चुगली-निन्दा और ऊल-जलूल बकवास भरे वचनों से वस्तुतः छटकारा पा लेते हैं। ____ हमारे शारीरिक कर्म सम्यक् हों। शारीरिक कर्म सम्यक् तब होते हैं जबकि हम हिंसा-हत्या, चोरी-जारी, नशे-पते आदि के दुष्कर्मों से यथार्थतः मुंह मोड़ लेते हैं। हमारी आजीविका सम्यक् हो। आजीविका तब सम्यक् होती है जबकि हम अपने जीवनयापन के साधनों को वास्तविकता के स्तर पर शुद्ध करते हुए छल-छद्म, जालसाजी, तस्करी-चोरी को सर्वथा त्यागते हैं और ऐसा कोई व्यवसाय नहीं करते जिससे कि धन-संचय की तीव्र लालसा के वशीभूत होकर अन्य अनेकों को हानि पहुंचाएं। हमारे प्रयत्न सम्यक् हों। प्रयत्न तब सम्यक् होते हैं, जबकि हर प्रयत्न सचमुच एक ऐसा व्यायाम बन जाता है जिससे कि हमारा मन दुर्गुण-विपन्न और सद्गुण संपन्न हो। हमारी जागरूकता सम्यक् हो । जागरूकता तब सम्यक् होती है जबकि हम अपने कायिक, वाचिक, मानसिक कर्मों के प्रति सजग सचेत रहने के वास्तविक अभ्यास में जुट जाते हैं। हमारी समाधि सम्यक् हो । समाधि तब सम्यक् होती है जबकि सतत

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