Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 73
________________ धर्म : जीवन जीने की कला समाज का गठन करता है, जहाँ कोई जन्म-जात ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं होता । हाँ, यदि कोई भेद-भाव होता है तो यही कि कौन कितना शीलवान, समाधिवान या प्रज्ञावान है ? परन्तु यह विभेद भी स्थायी, शास्वत नहीं है, किसी बाह्य शक्ति द्वारा पूर्व निश्चित या पूर्व निर्धारित नहीं है । हर मनुष्य इस बात की क्षमता रखता है कि वह अपने सद्प्रयत्नों द्वारा अधिक से अधिक शीलवान बनकर कायिक और वाचिक दुष्कर्मों से बचे, अधिक से अधिक समाधिवान बनकर अपने मन को वश में करे और अधिक से अधिक प्रज्ञावान बनकर राग, द्वेष और मोहरूपी चित्त-मैल से छुटकारा पाए । जो सम नहीं है, उसे समता प्राप्त करने का पूरा-पूरा अधिकार है, पूरी-पूरी सहूलियत है। शील, समाधि और प्रज्ञा में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाने वाला व्यक्ति स्वभावतः मैत्री और करुणा के ब्राह्मी गुणों से परिप्लावित हो उठता है । उसके मन में द्वेष और दौर्मनस्य, अहंकार और घृणा, भय और कायरता नहीं रह सकती। न वह जाति, वर्ण, कुल और धन के कारण अहं भावना का शिकार होता है और न ही इनके अभाव में हीन भावना का। कोई व्यक्ति किसी भी जाति, कुल, वर्ण या सम्प्रदाय में जन्मा हो, धनवान हो या निर्धन, विद्यवान हो या अनपढ़; यदि शील, समाधि और प्रज्ञा में प्रतिष्ठित है तो निश्चय ही पूर्ण मानव है, अतः महान है । मानवता के इस सही माप दण्ड से अपने आपको मापते रहने का अभ्यास बढ़ाएँ और जब कभी अपनी शील, समाधि और प्रज्ञा में जरा भी कमी देखें तब उसकी पुष्टि के प्रयत्न में लग जायँ और इस प्रकार अपना सच्चा कल्याण साधे।

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