Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 62
________________ धर्म का सर्वहितकारी स्वरूप ५१ इसी प्रकार कृतज्ञता भी चित्त की एक मंगलमयी सद्वृत्ति है। श्रद्धा और कृतज्ञता की भावना चित्त को मृदुल बनाती है, जोकि विपश्यना साधना के इस चित्त-विशुद्धीकरण के प्रयास में सहायक होती है । विपश्यना साधना काया और चित्त की प्रकृति के यथार्थ स्वरूप के प्रति जागरूक रहना सिखाती है । प्रकृति के यथार्थ दर्शन का यह अभ्यास किसी भी वर्ग, सम्प्रदाय, जाति, देश, काल व बोली-भाषा के व्यक्ति के लिए कोई कठिनाई पैदा नहीं करता । मानव अपनी ही मानवीय प्रकृति का स्वयं अध्ययन करता है । आत्म-दर्शन करता है। आत्म-निरीक्षण करता है । अपने भीतर समाई हुई गन्दगियों का यथाभूत दर्शन करता है । अपने मनोविकारों का यथार्थ अवलोकन करता है। इस प्रकार देखते-देखते वे मनोविकार दूर होते हैं और साधक एक भला, नेक आदमी बनकर सच्चे मानवीय धर्म में संस्थापित होता है । ऐसा नेक इन्सान किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदाय का क्यों न हो, सारे मानव समाज का गौरव साबित होता है । स्वयं तो सुखशान्ति से रहता ही है, अपने सम्पर्क में आने वाले अन्य सभी लोगों की सुखशान्ति बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध होता है। __ सद्धर्म का यह सार्वजनीन, सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सर्वहितकारी स्वरूप अधिक से अधिक लोगों को उपलब्ध हो और उनके हित-सुख का कारण बने, यही मंगल कामना है।

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