Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 64
________________ ११. धर्म ही रक्षक है अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए चिन्तित रहना मनुष्य मन का स्वभाव बन गया है। आने वाले क्षण सुखद हों, योग-क्षेम से परिपूर्ण हों इस निमित्त मानव भाँति-भाँति की शरण खोजता है, आश्रय ढूंढ़ता है, सहारा टटोलता है। परन्तु धर्म को छोड़कर कोई शरण, आश्रय, सहारा है ही नहीं, जो कि उसे भविष्य के प्रति निशंक और निर्भय बना दे, योग-क्षेम से परिपूर्ण कर दे । अतः धर्म शरण ही एकमात्र शरण है, धर्म का संरक्षण ही एकमात्र सही संरक्षण है । धर्म वह जो हमारे भीतर जागे, जिसे हम स्वयं धारण करें। किसी दूसरे के भीतर जागा हुआ, किसी दूसरे द्वारा धारण किया हुआ धर्म, हमारे किस काम का ? वह तो अधिक से अधिक हमें प्रेरणा और विधि प्रदान कर सकता है । परन्तु हमारा वास्तविक लाभ तो स्वयं धर्म धारण करने में है । अतः धर्म शरण का सही अभिप्राय आत्म-शरण है । इसीलिए कहा गया-अत्तसम्मा पणिधि च एतं मंगलमुत्तमं । यानी हमारा उत्तम मंगल इसी बात में है कि हम सम्यक् प्रकार अर्थात् भली-भाँति आत्म-प्रणिधान का अभ्यास करें। किसी भी बाह्य-शक्ति के प्रणिधान का अभ्यास हमें कायर, परावलम्बी और असमर्थ ही बनाएगा। यह आत्म-द्वीप और आत्म-शरण ही है, जो कि सही माने में धर्म द्वीप और धर्म-शरण है। हर संकट में हम अपने भीतर का धर्म जगाएँ। स्वयं धारण किए हुए धर्म द्वारा एक ऐसा सुरक्षित द्वीप बनाएँ जिसमें कि हमारे जीवन की डगमगाती हुई नैया सही संरक्षण पा सके, संकटों के प्रति हमारी सुरक्षा स्थिर हो सके । मुख्य बात यही है कि हम अपने भीतर की प्रज्ञा जगाए रखें और इसके लिए समाधि द्वारा अपने चित्त की एकाग्रता पुष्ट रखें तथा कायिक, वाचिक

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