Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 59
________________ १०. धर्म का सर्वहितकारी स्वरूप __मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज से अलग-थलग रहना उसके लिए न उचित है और न ही संभव । समाज में रहते हुए समाज के लिए अधिक से अधिक स्वस्थ सहायक बना रह सके, इसी में उसके जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है । स्वस्थ व्यक्तियों से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होता है । अस्वस्थ व्यक्ति वही है जिसका मन विकारों से विकृत रहता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं तो दुखी रहता ही है अपने सम्पर्क में आने वालों को भी उत्तापित करता है । अतः सुखी-स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए व्यक्तिव्यक्ति को सुख-स्वास्थ्य से भरपूर करना नितान्त आवश्यक है । एक-एक व्यक्ति स्वच्छ-चित्त हो, शान्तचित्त हो, तो ही समग्र समाज की शान्ति बनी रह सकती है। धर्म इस व्यक्तिगत शान्ति के लिए एक अनुपम साधन है और इस कारण विश्व-शान्ति का भी एकमात्र साधन है। धर्म का अर्थ सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय तो मनुष्य-मनुष्य और वर्ग-वर्ग के बीच दीवारें खड़ी करने, विभाजन पैदा करने का काम करता है। जबकि शुद्ध धर्म दीवारों को तोड़ता है, विभाजनों को दूर करता है। शुद्ध धर्म मनुष्य के भीतर समाए हुए अहंभाव अथवा हीनभाव को जड़ से उखाड़ फेंकता है। मानव मन की आशंकाएं, उत्त जनाएं, उद्विग्नताएं दूर करता है और उसे स्वच्छता और निर्मलता के उस धरातल पर प्रतिष्ठित करता है, जहाँ न अहंकारजन्य दंभ टिक सकता है और न ही हीनभाव की ग्रन्थियों से ग्रस्त दैन्य पनप सकता है। जीवन में समत्वभाव आता है और हर वस्तु, व्यक्ति और स्थिति को उसके यथार्थ स्वरूप में देख सकने की निर्मल प्रज्ञा जागती है। अतिरंजना और अतिशयोक्तियों में डूबा हुआ भक्ति-भावावेश

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