Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 30
________________ धर्म का सार (४) प्रज्ञा-"मैं" "मेरे" अथवा प्रिय-अप्रिय मूलक राग-द्वेष से रहित होकर हर व्यक्ति वस्तु और स्थिति को जैसी है, वैसी यथाभूत प्रज्ञापूर्वक देखने का अभ्यास, चित्त की समता का अभ्यास, शुद्ध धर्म है। दान, शील, समाधि और प्रज्ञा के ये चारों अभ्यास सार्वजनीन हैं, साम्प्रदायिकता-विहीन हैं, सर्वजनहितकारी हैं, सर्वग्राह्य हैं । इसीलिए छिलकों से परे शुद्ध धर्म है । परन्तु ऐसे शुद्ध धर्म का अभ्यास न कर, चाहें कि हम धार्मिक हों और उससे भी अधिक यह चाहें कि लोग हमें धार्मिक मानें, तो धर्म के नाम पर विज्ञापनबाजी ही करते हैं । नाना प्रकार के बाह्याचार करते हैं। नाना प्रकार के दार्शनिक वाद-विवाद करते हैं, वाणी-विलास और बुद्धि-विलास करते हैं, और इस प्रकार आत्म-प्रवंचना जग-प्रवंचना के जंजाल में बुरी तरह जकड़ते जाते हैं । न आत्महित सधता है, न परहित । ___ आत्महित और परहित के लिए शुद्ध धर्म का जीवन जीना अनिवार्य है। शुद्ध धर्म का जीवन जीने के लिए धर्म की शुद्धता को जानना अनिवार्य है। धान को भूसे से, सार को छिलके से अलग करना अनिवार्य है। सार को महत्त्व देना सीखेंगे तो ही सार ग्रहण किया जा सकेगा। ___शुद्ध धर्म का सार नहीं ग्रहण करेंगे तो द्वेष, द्रोह, दौर्मनस्य, दुराग्रह, अभिनिवेश, हठधर्मी, पक्षपात संकीर्णता, कट्टरता, भय, आशंका, अविश्वास, आलस, प्रमाद, कठमुल्लेपन से भरा हुआ जीवन, निस्तेज, निष्प्राण, निरुत्साही ही होगा; कुत्सित, कलुषित, कुटिल ही होगा; व्याकुल, व्यथित, व्यग्र ही होगा। शुद्ध धर्म का सार ग्रहण कर लेंगे तो प्यार और करुणा, स्नेह और सद्भाव, त्याग और बलिदान, सहयोग और सहकार, श्रद्धा और विश्वास, अभ्युदय और विकास से भरा हुआ जीवन ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी ही होगा; उदात्त, अभय, अचिन्त्य ही होगा; सहज, सरल, स्वच्छ ही होगा; मंगल, कल्याण, स्वस्ति से भरपूर ही होगा। शुद्ध धर्म का यही प्रत्यक्ष लाभ है । प्रत्यक्ष लाभ ही शुद्ध धर्म के सार की सही कसौटी है।

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