Book Title: Dharm Jivan Jine ki Kala
Author(s): Satyanarayan Goyanka
Publisher: Sayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai

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Page 29
________________ १८ धर्म : जीवन जीने की कला मरण से मुक्ति पाने की हजार चर्चाएँ करेंगे, हजार आशाएँ बाँधेगे, परन्तु यहाँ इसी जीवन में मन को विकारों से मुक्त करने का जरा भी प्रयत्न नहीं करेंगे । धर्म का सार छूट जाने से जितनी बड़ी हानि होती है, उससे कई गुना बड़ी हानि निस्सार को सार समझकर उससे चिपक जाने से होती है। इससे तो रोग असाध्य हो उठता है। धर्म की शुद्धता को जानना, समझना, जाँचना, परखना, रोग-मुक्ति का पहला आवश्यक कदम है । शुद्ध धर्म सदा स्पष्ट और सुबोध होता है। उसमें रहस्यमयी गुत्थियाँ नहीं होतीं। पहेली बुझौबल नहीं होता । दिमागी कसरत नहीं होती। प्रतीकों और अतिशयोक्तियों से भरा हुआ पाण्डित्य-प्रदर्शन नहीं होता । जो कुछ होता है वह सहज ही होता है । धर्म की शुद्धता इसी में है कि उसमें अटकल पच्चू, कपोल कल्पनाएँ नहीं होतीं । जो कुछ होता है यथार्थ ही होता है। धर्म कोरा-मोरा सिद्धान्त निरूपण नहीं होता । स्वयं साक्षात्कार, स्वयं अनुभव करने के लिए होता है। धर्म राजमार्ग की तरह ऋजु होता है। उसमें अन्धी गलियों जैसा भूल-भुलैया नहीं होता । धर्म यहीं इसी जीवन में लाभ देने वाला होता है । जितना-जितना पालन किया जाय, उतना-उतना लाभ देता ही है । धर्म आदि, मध्य, अन्त हर अवस्था में कल्याणकारी ही होता है । धर्म सर्वसाधारण के लिए समान रूप से ग्रहण करने योग्य होता है। ऐसा हो तो ही धर्म यथार्थ है, शुक्ल है, शुद्ध है । अन्यथा धर्म के नाम पर कोई धोखा हो सकता है। ___शुद्ध धर्म क्या है ? वाणी के कर्म, शरीर के कर्म, आजीविका, मानसिक स्वस्थता का अभ्यास, जागरूकता का अभ्यास, एकाग्रता का अभ्यास शुद्ध हो, मानसिक चिन्तन और जीवन जगत के प्रति दृष्टिकोण भी शुद्ध हो । यही शुद्ध धर्म है। मोटे-मोटे तौर पर कह सकते हैं(१) दान-अहंकार विहीन अपरिग्रह हेतु दिया गया दान शुद्ध धर्म है। (२) शील-सदाचार का पालन करना, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मिथ्या भाषण और नशे के सेवन से विरत रहना शुद्ध धर्म है। (३) समाधि-मन को वश में करना, उसे एकाग्र कर वर्तमान के प्रति सजग रहने का अभ्यास शुद्ध धर्म है।

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