Book Title: Ashtak Prakaran Author(s): Haribhadrasuri, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 4
________________ श्री अष्टक प्रकरण १. अथ महादेवाष्टकम् यस्य सङ्क्लेश-जननो, रागो नास्त्येव सर्वथा । न च द्वेषोऽपि सत्त्वेषु, शमेन्धनदवानलः ॥ १ ॥ न च मोहोऽपि सज्ज्ञानच्छादनोऽशुद्धवृत्तकृत् । त्रिलोकख्यातमहिमा, महादेव स उच्यते ॥ २ ॥ अर्थ आत्मा के स्वाभाविक स्वास्थ्य में बाधा करनेवाले राग का एक भी अंश जिसको नहीं हैं, समता रूपी काष्ठ को जलाकर भस्म करनेवाले भयंकर दावानल रूप द्वेष का भी किसी भी जीव के साथ एक भी अंश नहीं हैं, सम्यग् ज्ञान को रोकनेवाला और अशुद्ध वर्तन करानेवाला मोह भी नहीं हैं, जिनकी महिमा त्रिलोक में प्रसिद्ध है, वे ही महादेव हैं । — , यो वीतरागः सर्वज्ञो यः शाश्वतसुखेश्वरः । क्लिष्टकर्मकलातीतः, सर्वथा निष्कलस्तथा ॥३॥ यः पूज्यः सर्वदेवानां, यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् । यः स्रष्टा सर्वनीतीनां महादेवः स उच्यते ॥४॥ " अर्थ - जो वीतराग और वीतद्वेष हैं, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, शाश्वत सुख के स्वामी हैं, क्लेश रूप सांसारिक कारण जैसे कर्मों की कलाओं (भेदों) से रहित हैं, सर्व प्रकार से निष्कल हैं - शरीर के सभी अवयवों से रहित हैं,Page Navigation
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