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स्क्यम्भूस्तोत्र और 'प्रसन्न' विशेषण देकर यह बतलाया है कि वे सूक्तरूपमें ठीक अर्थका प्रतिपादन करने वाले हैं, निर्दोष है, अल्पाक्षर हैं
और प्रसादगुण-विशिष्ट है । सचमुच इस स्तोत्रका एक एक पद प्रायः बीजपद-जैसा सूत्रवाक्य है, और इसलिये इसे 'जनमार्गप्रदीप' ही नहीं किन्तु एक प्रकारसे 'जैनागम' कहना चाहिये । आंगम (श्र ति) रूपसे इसके वाक्योंका उल्लेख मिलता भी है । इतना ही नहीं, स्वयं ग्रन्थकारमहोदयने ' त्वयि वरदाऽऽगमदृष्टिरूपतः गुणकृशमपि किञ्चनोदितं' (१०५) इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थके कथनको आगमदृष्टिके अनुरूप बतलाया है । इसके सिवाय, अपने दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनमें 'दृष्टाऽऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' इस वाक्यके द्वारा युक्त्यनुशासन (युक्तिवचन) का लक्षण व्यक्त करते हुए यह बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष और आगमसे अक्रोिधरूप-अबाधित-विषयस्वरूप-अर्थका जो अर्थसे प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण
१ "सूक्तार्थैरमलैः स्तवोऽयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः” ।
२ जैसा कि कवि वाग्भटके काव्यानुशासनमें और जटासिंहनन्दी आचार्यके वरांगचरितमें पाये जानेवाले निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है
(क) आगम आप्तवचनं यथा'प्रजापतिर्यः प्रति(थ)मं जिजीविषूः शशास कृष्यादिसु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विवदे विदांवरः॥" [स्व० २]
-काव्यानुशासन (ख) अनेकान्तोऽपि चैकान्तः स्यादित्येवं वदेत्परः। "अनेका-तोऽप्यनेकान्त" [स्व० १०३]इति जैनी श्रुतिः स्मृता ।।
-वरांगचरित इस पद्यमें स्वयम्भूस्तोत्रके "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः” इस वाक्यको उद्धत करते हुए उसे 'जैनी अतिः' अर्थात् जैनागमका वाक्य बतलाया है।