________________ ( 25 ) शान्ति अाश्रम को अग्निहीन देख गुरु के क्रोधन स्वभाव का स्मरण कर त्रस्त हो गया। उसने भक्तिपूर्वक अम्भिदेव की तीव्र अाराधना और स्तुति की। अग्नि देव ने प्रसन्न हो उसकी मांग के अनुसार तीन वर दिये / एक तो यह कि आश्रम में अग्नि प्रज्वलित हो उठेगी। दूसरा यह कि उसके गुरु को मन्वन्तर के प्रतिष्ठापक महाप्रतापी पुत्र की प्राप्ति होगी और तीसरा यह कि गुरु का हृदय सब प्राणियों के प्रति कोमल हो जायगा। भाई का यज्ञ समाप्त हो जाने पर मुनि भूति श्राश्रम पर लौटे / अाश्रम में प्रवेश करते ही अपने स्वभाव में उन्हें विचित्र परिवर्तन का अनुभव हुआ। कारण पूछने पर शिष्य ने सारा इतिवृत्त बता दिया / गुरु ने प्रसन्न हो वेद, वेदाङ्ग आदि सम्पूर्ण विद्यायें उसे पढ़ा दी / थोड़े ही दिन बाद उनके एक पुत्र पैदा हुअा जिसका नाम भौत्य रखा गया / ये भौत्य ही चौदहवे मनु हैं / ___ इस मन्वन्तर में चाक्षुष, कनिष्ठ, पवित्र, भ्राजिर और धारावृक ये पाँच देवाण होंगे / शुचि इन्द्र होंगे / अग्नीध्र, अग्निबाहु, शुचि, मुक्त, माधव, शक्र और अजित सप्तर्षि होंगे / गुरु, गभीर, बध्न, भरत, अनुग्रह, स्त्रीमाणी, प्रतीर, विष्णु, संक्रन्दन, तेजस्वी और सबल मनु के इन पुत्रों के वंश इस मन्वन्तर के राजवंश होंगे। देवीतत्त्वदेवी परम रहस्यमय एक अति निगूढ दुर्जेय तत्त्व हैं / इनके स्वरूप का याथातथ्येन परिचय पाना बड़ा कठिन है। शास्त्रों से ज्ञात होता है कि यह शेषशायी नारायण हरि की महामाया हैं / त्रिगुणात्मिका प्रकृति इनका शरीर है। इनके शरीर के अङ्गभूत सत्त्व, रज और तम नामक गुणों से समस्त चेतन-अचेतन जगत् व्याप्त है / देव, असुर, गन्धर्व, राक्षस एवं मनुष्य की तो बात ही क्या ? ब्रह्मा, विष्णु, महेश, परमेश्वर की यह त्रिमूर्ति भी इनकी महिमा के भीतर है, इनसे प्रभावित है और इन्हीं से रचित है। ब्रह्म, जिस श्रादि-अन्त हीन शाश्वत सूत्र में सृष्टि और प्रलय रूप श्वेत तथा श्यामवर्ण के पुष्पों से प्रपञ्च की यह महती माला ग्रथित हो रही है, स्वभावतः निर्गुण है / उसमें किसी प्रकार की गुणवृत्ति का उदय नहीं हो सकता / अतः उस ब्रह्म को देवीतत्त्व का ज्ञान होने की तो कोई सम्भावना ही नहीं, और जो सगुण ब्रह्म है वह तो देवी के अङ्गभूत गुणों से ही गठित है फिर उसे अपनी उद्भावयित्री भगवती का सन्धान-पता कैसे लग सकता है ? मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्मा का यह कथन सर्वथा सत्य है / यया लया जगत्स्रष्टा जगत्पाताऽत्ति यो जगत् / सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतमिहेश्वरः / /