________________ भी साधक को प्राप्त होते हैं / अपने को परम सूक्ष्म बना लेने की शक्ति 'अणिमा' है / किसी भी कार्य को अति शीघ्र सम्पन्न कर लेने की शक्ति लघिमा है। सबसे पूजा प्राप्त कर लेने की शक्ति महिमा है | समस्त वस्तु को प्राप्त कर लेने की शक्ति प्राप्ति है / सर्वत्र व्यापक होने की शक्ति 'प्राकाम्य' है / सब कुछ कर डालने की शक्ति ईशित्व है, सब को वश में कर लेने की शक्ति वशित्व है / अपनी समस्त इच्छात्रों को पूर्ण कर लेने की शक्ति कामावसायित्व है / साधक को इन ऐश्वर्यों के मोह में भी नहीं फँसना चाहिये | जब साधक इन समस्त विध्नों पर विजय प्राप्त कर ब्रह्म में ही अपना चित्त स्थिर कर लेता है तब उसे यथार्थ मुक्ति प्राप्त होती है। और मुक्त हो जाने पर योगी फिर कभी भो पुनर्जन्म के बन्धन में नहीं पाता, वह सर्वदा के लिये ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है। एकतालीसवाँ अध्याय इस अध्याय में योगी के प्राचार-व्यवहार का वर्णन है, जिनमें कुछ इस प्रकार हैं योगी अपमान को अमृत और सम्मान को विष समझे। जनसमूह में सम्मिलित न हो / सदाचारी, श्रद्धालु गृहस्थों से ही भिक्षा प्राप्त करे। अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग, अलोभ, अहिंसा इन पाँच व्रतों का और अक्रोध, गुरुसेवा, पवित्रता, सात्त्विक तथा स्वल्प आहार, नित्य स्वाध्याय-इन पाँच नियमों का सदैव पालन करे। भिन्न भिन्न विषयों के जानने की उत्सुकता का परित्याग कर अपने ज्ञातव्य आत्मतत्त्व में ही अपनी बुद्धि स्थिर रखे | असत्य न बोले और न असच्चिन्तन करे / पवित्र, अप्रमत्त, जितेन्द्रिय और एकान्तप्रेमी होकर ब्रह्मचिन्तन में निरन्तर लगा रहे / बयालीसवाँ अध्याय इस अध्याय में प्रणव-ओंकार की महत्ता वर्णित है, जो संक्षेप में इस प्रकार है:--त्रोंकार में साढ़े तीन अक्षर वा मात्रायें हैं -- अकार, उकार, मकार और अनुस्वार-बिन्दु / प्रथम तीन मात्रायें सगुण और अन्तिम अर्ध मात्रा निर्गुण है। ओंकाररूप धनुष और स्वात्मा रूप वाण से ब्रह्म का वेधन करना ही योगी का लक्ष्य है / भूः, भुवः, स्वः यह तीनों लोक, दक्षिणाग्नि, गार्हपत्य, अाहवनीयये तीनों अग्नि, ब्रह्मा, विष्णु, महेश—ये तीनों देव, क, यजुः, साम ये तीनों वेद ओंकार के ही विकास हैं | इसकी पहली मात्रा-अकार-व्यक्त का, दूसरी मात्रा-उकार-अव्यक्त का, तीसरीमात्रा-मकार चित्-शक्ति का और चौथी अर्धमात्रा