________________ inha ( 62 ) बिन्दु परमपद का प्रतीक है / शब्दान्तर में ओंकार ही परब्रह्म है, इसी के ध्यान से योगी संसार-बन्धनों से मुक्त हो परब्रह्म को प्राप्त करता है / तैंतालीसवाँ अध्याय इस अध्याय में उन अरिष्टों-मृत्युलक्षणों का वर्णन है, जिनसे योगी अपनी मृत्यु की आसन्नता समझ कर सावधान हो जाता है और मृत्युकाल में होने वाले विविध कष्टों से अपनी रक्षा करता है | इन अरिष्टों की जानकारी के लिये इस अध्याय का मूल ग्रन्थ से अध्ययन करना आवश्यक है / अध्याय के मध्य में अनेक उपायों द्वारा यह समझाया गया है कि-अनासक्ति, निर्ममता, और धैर्य योगी के लिये बड़े महत्त्व की वस्तु है। अध्यायान्त में अलर्क ने उत्तमज्ञान और योग का उपदेश देने के निमित्त योगी दत्तात्रेय के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है और काशिराज से मिल अपना यह निश्चय व्यक्त किया है कि - यथाऽयं भौतिकः सङ्घस्तथान्तःकरणं नृणाम् / गुणास्तु सकलास्तद्वदशेषेष्वेव जन्तुषु / / 77 // चिच्छक्तिरेक एवायं यदा नान्योऽस्ति कश्चन / तदा का नृपते ! ज्ञानान्मित्रारिप्रभुभृत्यता / / 78 // सोऽहं न तेऽरिन ममासि शत्रुःसुबाहुरेषो न ममापकारी। दृष्टं मया सर्वमिदं यथावदन्विष्यतां भूप! रिपुस्त्वयाऽन्यः // 2 // जिस प्रकार यह देह भूतों का विकार है उसी प्रकार अन्तःकरण और समस्त गुण भी उसी के विकार हैं / समस्त प्राणियों में एक ही चित् शक्ति अनुस्यत है / अतः न कोई किसी का मित्र है न शत्रु है / न स्वामी है / न सेवक है / और इसी कारण न मैं तुम्हारा शत्रु हूँ और न तुम मेरे शत्रु हो / यह सुबाहु भी मेरा राजन् ! अब अपने लिये तुम कोई दूसरा शत्रु ढूँढो / चौवालीसवाँ अध्याय दशवें अध्याय में सुमति नामक ब्राह्मणकुमार का उसके पिता के साथ जिस संवाद का सूत्रपात हुआ था इस अध्याय के अन्त में उस का उपसंहार किया गया है / अध्याय की कथा इस प्रकार है:-अलर्क को ज्ञान-प्राप्ति होने के पश्चात् सुबाहु ने काशिराज से कहा-“राजन् ! मैंने सचमुच राज्य पाने के लिये आप