________________ ( 64 ) इस भौतिक जगत् का जो मूल कारण है उसे प्रधान कहते हैं, उसीको महर्षियों ने अव्यक्त कहा है और वही सूक्ष्म, नित्य एवं सदसत्स्वरूपा प्रकृति है। सृष्टि के अादि काल में केवल ब्रह्म था, वह ब्रह्म अजन्मा, अविनाशी, अजर अप्रमेय और अाधारनिरपेक्ष है / वह गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द से रहित है, वह अनादि अनन्त है। वह सम्पूर्ण जगत् की योनि और तीनों गुणों का कारण है। वह श्राधुनिक नहीं किन्तु नितान्त पुरातन, सनातन है / वह ज्ञान-विज्ञान से अगम्य है / सृष्टि का समय आने पर वही क्षेत्रज्ञ रूप से गुणों की साम्यावस्था रूप प्रकृति को तुब्ध करता है, जिसके फलस्वरूप महत्तत्त्व का प्राकटय होता है, महत्तत्व से वैकारिक, तेजस, भूतादि, अर्थात् सात्त्विक, राजस, तामस-इस त्रिविध अहंकार का आविर्भाव होता है। तामस अहंकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध इन पंचतन्मात्राओं का उद्भव होता है और इन तन्मात्राओं से क्रमशः अाकाश, वायु, तेज, जल, और पृथ्वी इन पांच भूतों का उद्भव होता है / इन भूतों में क्रम से शब्द, शब्द, स्पर्श; शब्द, स्पर्श, रूप; शब्द, स्पर्श, रूप, रस; शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का विकास होता है। और इसीलिये पूर्व, पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर भूत स्थल, स्थलतर, स्थूलतम होते हैं / फिर राजस अहंकार से श्रोत्र, त्वक, चक्षः, रसना, और प्राण इन पांच ज्ञानेन्द्रियों की तथा वाक, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ इन पाँच कर्मेन्द्रियों की और सात्त्विक अहंकार से इन इन्द्रियों के अधिष्टातृ देवता तथा ग्यारहवें इन्द्रिय मन की उत्पत्ति होती है / फिर महत्तत्व से लेकर पृथ्वी-पर्यन्त सब तत्त्व मिल कर पुरुष से अधिष्ठित हो प्रधान तत्त्व के सम्बन्ध से एक अण्ड उत्पन्न करते हैं / यह अण्ड धीरे धीरे बढ़ता है और इस के साथ ही उसके भीतर प्रतिष्ठित ब्रह्मा नाम से प्रसिद्ध क्षेत्रज्ञ पुरुष भी वृद्धि को प्राप्त होता है। फिर आवश्यक वृद्धि और विकास हो जाने के पश्चात् प्रथम शरीरधारी पुरुष के रूप में ब्रह्मा का प्राकट य होता है औ फिर वही ब्रह्मा उसी अण्ड में समस्त सचराचर जगत् की सृष्टि करते हैं / छियालीसवाँ अध्याय इस अध्याय में यह कहा गया है कि जिस समय इस सम्पूर्ण जगत् का प्रकृति में लय हो जाता है उस समय की स्थिति को प्राकृत प्रलय कहा जाता है / उस समय प्रकृति और पुरुष निष्क्रिय और निर्विकार हो समानभाव से विद्यमान रहते हैं। उस समय प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज, और तम सर्वथा समभाव से रहते हैं / कोई किसी से किंचित् भी न्यून वा अधिक नहीं