________________ ( 134 ) एको यदाऽहमासन्तु प्राक् तदा देहजं मम | दुःखमासीन्ममत्वे तु भार्यायास्तदभूद् द्विधा // 33 // यदा जातान्यपत्यानि तदा यावन्ति तानि वै / / तावच्छरीरभूमीनि मम दुःखान्यथाभवन् // 34 // भाई ! ऐसा मत कहो / मैं धन्य नहीं हूँ, धन्य तो वस्तुतः तुम्ही हो, क्योंकि तुम्हें केवल एक ही देह का दुःख है। जिसे जितने अधिक देहों में ममता होगी उसे उतना ही अधिक दुःख होगा // 32 // जब मैं अकेला था तब मुझे एक ही देह का दुःख था। जब मुझे भार्या मिली तब मेरा दु:ख दूना हो गया, क्योंकि उसके देह का दुःख भी मुझे व्यथित करने लगा // 33 // और जब मेरे बहुत सी सन्तानें हो गई तब उन सब शरीरों का भी दुःख मुझे घेरने लगा। फिर इतना अधिक दुःख भोगने वाला मैं कैसे धन्य हो सकता हूँ ? // 34 // दोनों मृगों की उपर्युक्त बातें सुन कर राजा बड़ी दुविधा में पड़ा और निश्चय न कर सका कि पुत्र का न होना अच्छा है अथवा पुत्र का होना अच्छा है / विचार करने पर वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि पुत्रों से दुःख तो अवश्य है पर शास्त्रों का मत है कि पुत्रहीन को सद्गति नहीं प्राप्त होती, अतः पुत्र का होना तो आवश्यक है पर उसे किसी प्राणी की हिंसा करके प्राप्त करना उचित नहीं है किन्तु प्रचण्ड तपस्या के द्वारा ही उसे प्राप्त करना उचित है / 121 से 128 तक अध्याय तपस्या से पुत्र प्राप्त करने का संकल्प कर राजा खनीनेत्र गोमती नदी के तट पर इन्द्र को प्रसन्न करने के हेतु कठोर तप करने लगा। उसकी तपस्या से सन्तुष्ट हो इन्द्र ने उसे अति श्रेष्ठ पुत्र होने का वरदान दिया। फिर राजा अपनी राजधानी में आ धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा | कुछ दिन बाद उसे पुत्र हुआ जिसका नाम बलाश्व रक्खा गया। पिता के बाद जब वह राज्यासन पर आरूढ़ हुआ तब उसने अपने बल-पौरुष से समस्त राजाओं को वश में कर उन्हें कर देने को विवश किया। इससे असन्तुष्ट हो सब राजा मिल गये और उस पर अाक्रमण कर उसे विहल और विकल कर दिये / तब वह अपने मुख के सामने अपने हाथ मल कर शोक के निःश्वास