________________ खाद्य-पेयकी सामग्री सदैव विपुल रही। सारी प्रजा सम्पन्न तथा अनुशासित थी। किसी को किसी प्रकार का कोई भय न था // एक सौ बीसवां अध्याय विविंश के बाद उसका पुत्र खनीनेत्र राजा हुआ। उसने दश सहस्र यज्ञ करके सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर दिया और फिर तपस्या द्वारा विपुल धनराशि प्राप्त कर पृथ्वी को पुनः खरीद लिया | इस प्रकार समस्त ब्राह्मण धनवान हो गये और राजा का राज्य भी बना रहा। इस महाधार्मिक राजा के कोई पुत्र न था। एक दिन वह शिकार खेलने जंगल गया था। उस समय एक मृग उसके सामने आकर बोला-"राजन् ! मुझे मार कर अपना इष्टसाधन कीजिये।" राजा ने विस्मित हो कर पूछा-"भाई ! अन्य मृग तो मुझे दूर ही से देख कर भाग जाते हैं, फिर तुम क्यों मृत्यु के लिये आत्म समर्पण कर रहे हो / " मृग ने कहा अपुत्रोऽहं महाराज! वृथा जन्मप्रयोजनम् / विचारयन्न पश्यामि प्राणानामिह धारणम् // 10 // महाराज ! मेरे पुत्र नहीं है, अत: मेरा जीवन व्यर्थ है, विचार करने पर मुझे प्राण रखने की आवश्यकता नहीं प्रतीत होती। इतने में एक दूसरा मृग पाकर बोला राजन् ! श्राप पुत्र की प्राप्ति के लिये पितृयज्ञ करने के निमित्त मृग का मांस चाहते हैं, सो इस अपुत्र को मारने से आपका लाभ न होगा। मुझ पुत्रवान को मार कर अपने इष्ट का साधन कीजिये। राजा ने जब इससे मृत्यु का वरण करने का कारण पूछा तब इसने कहा"राजन ! मेरे सैकड़ों सन्ताने हैं, उनके पालन और जीवन की चिन्ता मुझे निरन्तर दु:खी बनाये रहती है / अत: मैं शरीर का त्याग कर सन्तान के दुःखों से मुक्त होना चाहता हूँ"। पूर्व मृग ने कहा- “राजन् / यह धन्य है, इसके इतने पुत्र हैं, इसे मत मारिये, मुझ पापी अपुत्र को ही मारिये / " दूसरे मृग ने पूर्व मृग से कहा एकदेहभवं यस्य दुःखं धन्यः स वै भवान् / बहूनि यस्य देहानि तस्य दुःखान्यनेकधा / 32 / /