Book Title: Markandeya Puran Ek Adhyayan
Author(s): Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

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Page 80
________________ ( 56 ) वह गर्भ से बाहर आता है और किस प्रकार उसका विकास होता है / बाल्य, कौमार, यौवन और वृद्धावस्था को पार करता हुआ मनुष्य किस प्रकार मृत्यु और जन्म तथा जन्म और मृत्यु के चक्र में परवश पड़ा रहता है / स्वर्ग में भी श्रारम्भ से ही उसे कौन-सी चिन्ता ग्रस्त किये रहती है / किस प्रकार संसार नितान्त असुख और दुःखमय होने से सर्वतोभावेन त्यागने योग्य है / बारहवां अध्याय इस अध्याय में महारौरव, तम, निकृन्तन; अप्रतिष्ठ, असिपत्र और तप्तकुम्भ नाम के नरकों की सुविशाल परिधि तथा उनमें होने वालीद रुणतम यातनाओं का विस्तृत एवं रोमाञ्चकारी वर्णन है / तेरहवां अध्याय इस अध्याय में सुमति ने अपने वर्तमान जन्म से पूर्व सातवें जन्म की घटना का वर्णन करते हुये बताया है कि एक बार पौंसले पर पानी पीने को जाती हुई गौत्रों को रोकने के कारण मृत्यु के बाद जब वह नरक में पड़ा था, एक दिन सहसा उसे शीतल समीर के सुखद स्पर्श का अनुभव हुअा। उस असम्भावित सुखानुभव से विस्मित होकर वह उस सुख के कारण की खोज करने लगा। इतने में उसने एक नररत्न को एक यमदूत से, जो उसे मार्ग दिखा रहा था, यह प्रश्न करते हुये देखा--"यमदूत ! यह तो बताओ कि मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसके कारण मुझे इस भयंकर नरक में आना पड़ा है : मेरा जन्म जनकवंश में हुआ / मैं विदेह में विपश्चित् नाम से विख्यात राजा था / मैं प्रजाजनों का भलीभाँति पालन करता था / मैंने अनेक यज्ञ किये / धर्मानुसार पृथ्वी का पालन किया। कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखायी और किसी अतिथि को कभी निराश नहीं लौटने दिया। पितरों, देवताओं, ऋषियों तथा भृत्यजनों को उनका भाग दिये विना मैंने कभी भोजन नहीं किया / परस्त्री और परधन की अोर कभी मेरा मन नहीं गया। देवकर्म और पितृकर्म में मैं सदा सावधान रहा / किसी प्राणी को किसी प्रकार का किञ्चिन्मात्र भी उद्वेग करने वाला कोई कार्य मैंने कभी नहीं किया / फिर क्या कारण है कि मुझे इस अत्यन्त दारुण नरक में आना पड़ा ?" / चौदहवां अध्याय राजा के उपर्युक्त प्रश्न के उत्तर में यमदूत ने बताया- "एक बार ऋतुमती भार्या को आपने ऋतुदान नहीं दिया, बस, इसी एक अपराध के कारण कुछ क्षणों के लिये नरक का दु:खमय दृश्य देखने मात्र के लिये श्राप को यहाँ

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