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( 57 ) "स्त्रीनपुसकोदये आहारकढिमनःपर्ययपरिहारविशुद्धयो नहि ।"
-गोजी० गा० ७२८ । टीका
अर्थात् स्त्रीवेद तथा नपुसकवेद का उदय रहने से आहारकऋद्धि, मनःपर्ययज्ञान तथा परिहारविशुद्धसंयत नहीं होता है। कर्मप्रकृति तथा गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में प्रथम दो गुणस्थान में अन्तानुबंधीय चतुष्क का उदय माना है ।
कार्मणवर्गणा राशि का प्रमाण सिद्धराशि के अनन्तवें भाग है। द्रव्याथिकनय से परमाणु निरंश है। एक समय हीन मुहूर्त को भिन्न मुहूर्त कहते हैं। यह उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त है । परमाणु एक प्रदेशी ही होता है ।
तत्काल पुरुष वेद का जो नवीन बंधा हुआ है उसके निषेक पुरुष वेद का उपशमन करने के काल में उपशम करने योग्य नहीं हुए थे। क्योंकि अचलावली में कर्मप्रकृति को अन्य रूप परिणमाना अशक्य होता है। इससे पुरुष वेद के निषेक मध्यम क्रोध युगल का उपशम करने के काल में उपशम किये जाते हैं। इसी प्रकार संज्वलन क्रोधादि के भी नवबंधक का स्वरूप जानना। अनन्तर संज्वलन क्रोध का उपशम करता है। उसके अनन्तर उस सज्वलन क्रोध के नवीन बंध सहित अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान मान युगल का उपशम करता है। उसके अनंतर संज्वलन मान का उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन मान के नवीन बंध सहित मध्यम अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान माया युगल का उपशमकरता है। उसके अनन्तर संज्वलन माया का उपशम करता है। उसके अनन्तर संज्वलन माया के नवीन बंध सहित मध्यम अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान लोभ को उपशमाता है । उसके अनन्तर बादर संज्वलन लोभ को उपशमाता है। यह विशेष केवल मोहनीय कर्म का ही जानना, क्योंकि मोहनीय के सिवाय अन्य कर्मों का उपशम नहीं होता है।
किसी व्यक्ति ने गौतम स्वामी से संथारा ग्रहण किया। गौतम स्वामी ने धर्मोपदेश दिया। वे जहाँ तक रहे-शुभ योग की प्रवृत्ति थी। उनके जाने के बाद परिणाम अशुभयोग में परिणत हो गये। स्त्री में आसक्त हुआ-मरकर द्वीन्द्रिय जीव में उत्पन्न हुआ। क्योंकि अशुभ योग के साथ अशुभ लेश्या भी थी।
टीकाकार के अनुसार बारह वर्ष तक की कुमारी अप्राप्त यौवना होती है। वाचिक क्रोध तो बुरा है ही, पर इससे भी अधिक बुरे हैं आत्म-प्रदेशों में व्याप्त क्रोध के अणु। वे कभी-कभी अशुभ योग की तीव्रता को निमन्त्रण देते हैं।
पांच आस्रव द्वार में पांचवां आस्रव योग है। इसका सम्बध-मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से है। चूकि प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान तक चलती है अत: योग आस्रव भी तेरहवें गुणस्थान तक रहता है। जिस दिन सम्पूर्ण योग आस्रव समाप्त हो जाता है यानि व्यक्ति अयोग-अवस्थामें पहुँच जाता है, तभी कर्म का अन्तिम रूप से बंधन रुकता है। किसी कवि ने कहा है
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