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नोट-तेजोलेशी अपकायिक व वनस्पतिकायिक जीव आयुष्य का बंध नहीं करता। ( वर्तमानकाल को अपेक्षा )। सयोगी जीव और अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों के आयुष्य बंध तेउकाइय-वाउक्काइयाणं सम्वत्थ वि पढम-तइया भंगा।
-भग० श. २६ । उ १ । सू २५
सयोगी, काययोगी तेउकायिक व वायुकायिक जीव में आयुष्य की अपेक्षा प्रथमतृतीय भंग से बंध होता है। .१९ सयोगी द्वीन्द्रिय, व्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जीव, तिर्यश्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य
और आयुष्य बंध
बेइदिय-तेइ दिय-चरिदियाणं वि सव्वत्थ पि पढम-तइया भंगा। णवरं सम्मत्ते णाणे, आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे तइओ भंगो। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणंxxx सेसेसु चत्तारि भंगा।x x x मणुस्साणं जहा जीवाणं।
-भग० श० २६ । उ १ । सू २५ सयोगी-वचनयोगी-काययोगी द्वीन्द्रिय में प्रथम-तृतीय दो भंग होते हैं ।
नोट-सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान-इनमें केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है। क्योंकि उनमें सम्यक्त्व आदि सास्वादान भाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं। इनके चले जाने पर आयुष्य का बंध होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य चारों भंग से आयुष्य कर्म बांधते हैं । सयोगी वाणव्यंतर-ज्योतिषी व वैमानिकदेव और आयुष्य-बंध वाणमंतर-जोइसिय वेमाणिय जहा असुरकुमारा।
-भग• श० २६ । उ १ सू २५ सयोगी, मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी वाणव्यंतर में ज्योतिषी-बैमानिकदेव चारों भंग होते हैं। •२० सयोगी औधिक जीव दंडक और नाम कर्म का बंधन •२१ सयोगी औधिक जीव दंडक और-गोत्रकर्म-अंतरायकर्म का बंधन णाम गोयं अंतरायं च एयाणि जहा णाणावरणिज्ज ।
-भग० श. २६ । उ १ सू २५ सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी-काययोगी जीव नामकर्म-गोत्रकर्म-अंतरायकर्म का चार भंग की वक्तव्यत्ता ज्ञानावरणीय कर्म के बंधन की वक्तव्यत्ता की तरह कहना ।
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