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( ८० ) तदा प्रथमो भंगो यदा पुनरेकस्तदा द्वितीयो यदा बहवस्तदा तृतीय इति, अत एव भंगाः भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु भावनीयाः।
१-सब नारको जीव सत्यमनप्रयोग वाले यावत् वैक्रियमिश्रप्रयोग वाले होते हैं।
(१) अथवा एक नारकी कार्मणशरीरकायप्रयोग वाला होता है। (२) अथवा कितनेक नारकी कार्मणशरीरकायप्रयोग वाले होते हैं।
अस्तु नरयिक पद में सत्यमनप्रयोग वाले से आरंभी वक्रियमिश्र कायप्रयोग वाले पर्यन्त दस पद हमेशा बहुवचन से स्थित है। इस कारण यह प्रथम भंग है।
प्रश्न उठता है कि-वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले हमेशा कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि नरकगति में बारह मुहूर्त का उपपात विरहकाल है।
इसका उत्तर यह है कि-यह उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा कहा है। वह इस प्रकार है-यद्यपि बारह मुहूर्त का गति में उपपात विरहकाल होता है, फिर भी उस समय भी उत्तरवैक्रिय शरीर का आरंभ करने वाले संभव है और उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में भवधारणीय वैक्रिय से मित्र होता है, क्योंकि वैक्रिय शरीर के सामर्थ्य से उत्तरवैक्रिय का आरंभ करता है। भवधारणीय शरीर के प्रवेश में भी उत्तरवैक्रिय से मिश्र होता है, क्योंकि उतरवैक्रिय के बल से भवधारणीय शरीर में प्रवेश करता है। इस कारण उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा भवधारणीय और उत्तरवैत्रिय के मिश्र का संभव होने से उस समय भी वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग वाले नैरयिक होते हैं। कार्मणशरीर कायप्रयोग वाला नारकी कदाचित् एक भी न होते हो, क्योंकि बारह मुहूर्त की गति में उपपात बिरहकाल होता है। जब होता है तब भी जघन्य एक, दो और उत्कृष्ट से असंख्यात होते हैं। इस कारण जब कार्मणशरीर कायप्रयोगवाला एक भी नहीं होता है तब प्रथम भंग होता है। जब एक होता है तब दूसरा भंग, जब घने होते हैं तब तीसरा भंग होता है।
३ सयोगी भवनवासियों का विभाग एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि ।
-पण्ण• प १६ । सू १०७९ । पृष्ठ. २६३ [ टीका के लिए नारकी का पाठ देखो ] जैसा नारकी (बहुवचन) के विषय में कहा है वैसा ही असुरकुमारों यावत् स्तनितकुमारों के विषय में भी जानना चाहिए ।
अस्तु नारकी की तरह यहाँ तीन भंग कहना चाहिए ।
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