Book Title: Yoga kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 465
________________ ( ३४८ ) कार्मण शरीरनामक नामकर्म के उदय से और जीव के प्रदेशों की चंचलता रूप योग के निमित्त से कार्मण वर्गणारूप से आये पुद्गलस्कन्ध मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति रूप होकर आत्मा के प्रदेशों में परस्पर प्रवेश करते हैं उसी को बंध कहते हैं । ४८ वेदनीय कर्म का बंधन तथा योग-लेश्या जीवेणं भंते! वेrणिज्जं कम्मं कि बंधी ० पुच्छा ? गोयमा ! अत्थेगइए बंधी बंध बंधिस्स १, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, अत्थेगइए बंधी न बंधइ न बंधिस्स ४, सलेस्से वि एवं चेव तइयविहूणा भंगा। कण्हलेस्से जाव पहले से पढम- बिइया भंगा, सुक्कलेस्से तइयविहुणा भंगा, अलेस्से चरिमो भंगो । कण्हपक्खि पढमबिइया । सुक्कपक्खिया तइयविहुणा । एवं सम्मदिहिस्स वि, यमिच्छादिट्टिस्स सम्मामिच्छादिट्टिस्स य पढमबिइया । णाणिस्स तयविहुणा, आभिणिबोहिय जाव मणपज्जवणाणी पढम-बिइया, केवलणाणी तइयविणा । एवं नोसम्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी । सागारोवउत्तं अणागारोवते एएसुतइयविहुणा । अजोगम्मि य चरिमो, सेसेसु पढमबिइया । - भग० श० २६ । उ १ । सू १७ वेदनीय कर्म ही एक ऐसा कम है जो अकेला भी बंध सकता है । यह स्थिति ग्यारवें बारहवें व तेरहवें गुणस्थान के जीवों में होती है । इन गुणस्थानों में वेदनीय कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्मों का बंधन नहीं होता है । इनमें से ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में चतुर्थ भंग लागू नहीं हो सकता है। चौदहवें गुणस्थान के जीव के निर्विवाद चतुर्थ भंग लागू होता है । उपरोक्त पाठ से यह ज्ञात होता है कि सलेशी - शुक्ललेशी जीवों में कोई एक जीव ऐसा होता है जिसके चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बंधन होता है अर्थात् वह शुक्ल लेशी जीव वर्तमान में न तो वेदनीय कर्म का बंधन करता है और न भविष्यत् में करेगा । चौदहवें गुणस्थान का जीव लेशी शुक्ललेशी हो नहीं सकता है । अतः उपरोक्त शुक्ललेशी जीव तेरहवें गुणस्थान वाला ही होना चाहिए । जीव के साता वेदनीय कर्म का बंधन ईर्यापथिक रूप में होता रहता है । का जीव वेदनीय कर्म का अबंधक नहीं होता है । लेकिन तेरहवें गुणस्थान के तेरहवें गुणस्थान टीकाकार का कहना है- "सलेशी जीव अन्य भंगों से वेदनीय कर्म का बंधन करता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्या रहित अयोगी को तक होती है तथा वहाँ तक वेदनीय कर्म का पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर लेकिन उसमें चतुर्थ भंग नहीं घट सकता घट सकता है । बंधन होता रहता है ही लेश्या तेरहवें गुणस्थान । कई आचार्य इसका प्रथम समय में घण्टा इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के लाला न्याय से परम शुक्ललेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी- शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है । तत्त्व बहुश्रुतगम्य है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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