Book Title: Yoga kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 413
________________ ( २९६ ) एवं जहा वाणयंतराणं तहा जोइसियाणं वि तिष्णि गमगा भाणियव्वा, नवरं -एगा तेउलेस्सा । उववज्जंतेसु पण्णत्तेसु य असण्णी नत्थि, सेसं तं चैव । भग० श० १३ । उ २ । सू ३१ ज्योतिषी देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं । वे विमानावास संख्येय विस्तृत हैं, असंख्येय विस्तृत नहीं है । जिस प्रकार वाणव्यंतरदेवों के विषय में कहा— उसी प्रकार ज्योतिषी देवों के विषय में भी तीन गमक ( उत्पाद, च्यवन-सत्ता कहने चाहिए । ( गमक १-२-३ ) । इसमें इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियों में केवल एक तेजो लेश्या ही होती है उत्पाद, चवन ( उद्वर्तना ) और सत्ता में असंज्ञी नहीं होते हैं । नोट- उनके विमान एक योजन से भी कम विस्तृतवाले होते हैं । सोहम्मे णं भंते! कप्पे बत्तीसार विमाणावास सय सहस्सेसु संखेज्ज - वित्थडे विमाणे एगसमएणं केवइया x x x । तेउलेस्सा उववज्जंति ? × × × एवं जहा जोइसियाणं तिन्नि गमगा तहेव तिन्नि गमगा भाणियव्वा नवरं तिसुवि सखेज्जा भाणियव्वा । x x x 1 असंखेज्जवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमगा, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा । x x x एवं जहा सोहम्मे बत्तव्वया भणिया तहा ईसाणेसु वि छ गमगा भाणियव्वा । सणकुमारे ( वि ) एवं चेव । x x x एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव । - भग० श० १३ । उ२ । सू ३२, ३३ सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख उनमें उत्पत्ति, च्यवन तथा अवस्थिति के लेकर ज्योतिषी विमानों की तरह कहने विमानों में जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, तीन गमक मनोयोग, बचनयोग व काययोग को ( गमक १, २, ३ ) । । सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में जो असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें उत्पत्ति, च्यवन तथा अवस्थिति के तीन गमक-मनोयोग, वचनयोग व काययोग को लेकर कहने । इन तीनों गमकों में उत्कृष्ट में असंख्यात कहना । ईशान कल्पदेवलोक के विमानों के सम्बन्ध में सौधमं कल्प की तरह तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने । इसी प्रकार सनत्कुमार से सहस्रार देवलोक तक के विमानों के सम्बन्ध में तीन संख्यात तथा तीन असंख्यात के, इस प्रकार छः गमक कहने । लेकिन लेश्या में नानात्व कहना अर्थात् सनत्कुमार से ब्रह्मलोक तक पद्म तथा लांतक से कहनी । सहस्रार तक शुक्ल लेश्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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