Book Title: Yoga kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 406
________________ ( २८९ ) गमक ३-इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास. सयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु केवतिया नेरइया पणता? केवतिया काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोवउत्ता पण्णता?xxx। ___गोयमा! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु संखेज्जा नेरइया पण्णता?xxx। संखेज्जा मणजोगी पण्णत्ता। एवं जाव ( संखेज्जा वइजोगी पण्णत्ता। संखेज्जा कायजोगी पण्णत्ता ) अणागारोवउत्ता। भग० श. १३ । उ १ । सू ५ गमक ३-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्यात योजन विस्तारवाले नरकावासों में संख्यात मनोयोगी होते हैं. संख्यात, वचनयोगी होते हैं व संख्यात काययोगी होते हैं । नोट-असंज्ञी जीव कदाचित् होते हैं व कदाचित् नहीं होते हैं। नोइन्द्रिय के उपयोगवाले नारकी असंज्ञी नारकी जीवों की तरह कदाचित् होते हैं व कदाचित् नहीं होते हैं। जो असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय मरकर नरक में नरयिकपने उत्पन्न होते हैं वे अपर्याप्त अवस्था में कुछ काल तक असंज्ञी होते हैं। ऐसे नैरयिक अल्प होते हैं अतः कहा गया है कि रत्नप्रभा पृथ्वी में असंज्ञी कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते हैं । पाठ ऊपर देखो। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं उनमें एक समय में असंख्यात मनोयोगी होते हैं, असंख्यात वचनयोगी व असंख्यात काययोगी होते हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि रत्नप्रभा नारकी में सम्यगमिथ्यादृष्टिवाला कोई भी नारकी नहीं रहता है परन्तु मिथ्यादृष्टि व सम्यग्दृष्टि नारकी की नियमा है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा यावत् तमतमप्रभा नारकी के सम्बन्ध में जानना चाहिए। यद्यपि सातवी नारकी में सम्यग्दुष्टि जीव न मरते हैं न उत्पन्न होते हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव वहाँ नियमतः होते हैं परन्तु सम्ममिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् होते हैं, कदाचित् न भी होते हैं। यद्यपि कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक में योग तीनों हो सकते हैं। पन्द्रह योगों की विवक्षा से कृष्णपाक्षिक में १३ योग ( आहारक-आहारकमिश्रकाययोग बाद ) व शुक्ल पाक्षिक में १५ योग होते हैं । कहा है "जेसिमावड्ढोपोग्गलपरियट्टो, सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिगे पुण कण्हपक्खिया ॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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