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१ / संस्मरण : आदराञ्जलि : ३५
मार्गदर्शक दार्शनिक न्यायाचार्यजी • डॉ. नीलम जैन, सहारनपुर
डॉ० महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य उन विरल स्रष्टाओंमें से हैं। जिन्होंने अपने जीवनका एक-एक क्षण साहित्यकी साधना और आराधनामें व्यतीत किया । ४७ वर्षीय जीवनकालमें अपनी प्रतिभा व लगनसे अपने चिन्तनको नये ढंगसे संस्कारित किया। स्वाभाविक, प्रभावशाली एवं द्वादशांग रत्नाकरकी अतल गहराइयोंसे न्याय, दर्शन एवं प्रमाणके जो रत्न प्रदान किए आज भी वह अद्वितीय हैं।
डॉ० महेन्द्रकुमारजी का साधनाकाल देशको विषम एवं दुःसंक्रमित परिस्थितियोंके मध्य रहा, यह वह समय था जब पश्चिमकी साम्यवादी अवधारणाओंने तथा दासताकालकी त्रास्दियोंने मानवकी अन्तर्चेतनाव्यक्तिवादी वर्चस्वको स्थापित कर रखा था, तत्कालीन देशके कर्णधारोंने तो सारो धर्म एवं साहित्य संरचना एक ही धार्मिक अवधारणा मानकर चिन्तन प्रक्रियासे परे सरका दी थी, उस समय डॉ० जैन जैसे ही अध्यवसायी थे जिन्होंने सभी दर्शनोंको परिभाषित करते हुए जैनदर्शनको सर्वथा नुतन और मौलिक पहचान देकर हिन्दुत्वसे पृथक् रखते हुए जैनदर्शनकी सरल, स्पष्ट एवं सर्वग्राह्य व्याख्या की, अनेकान्त, स्याद्वाद, छः द्रव्य एवं सात तत्त्व, नौ पदार्थों को 'जैनदर्शन' पुस्तकमें अभूतपूर्व ढंगसे प्रस्तुत किया। इस नयी पुस्तकसे एक नये युगका प्रारम्भ हुआ। कहना न होगा, यह एक ऐसी प्रथम पुस्तक थी जिसकी भाषाको बुनावट एवं शैली की कसावट तथा विषय वस्तुकी सटीकतासे कोई भी पाठक अप्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । यह पुस्तक अद्वितीय है इसमें वह सब कुछ है जो वर्तमान युगके सामाजिक चिन्तनको एक सर्वविध समृद्धिशाली उच्चकोटिको कैनवास प्रदान करती है, "विश्व शान्ति में जैनधर्मका योगदान" एवं अनेकान्त स्याद्वाद जैसे लेख न्याय, स्वतन्त्रता, समानता एवं विश्व बन्धुत्व स्थापित करने में सक्षम है। जैन साहित्यके अन्तरंग में व्यापक सर्वांगीण व्यवस्थाओंके अनन्तर भी उससे स्वाध्यायीको सोचने समझने और ग्रहण करनेकी ऊर्जा शक्ति नहीं प्राप्त हो सकी, जिस समय न्याय जैसे शुष्क एवं नीरस विषय पर डा० साहब ने लेखनी उठाई थी उस समय तो संभवतः किसी ने सोचा भी न होगा कि न्यायका अभिलेखके रूपमें स्थायी और सार्वजनीन बनानेकी यह पगडंडी राजमार्गमें बदल जाएगी और ये ग्रन्थ और वाक्य प्रभुसत्ता में बदल जायेंगे तथा समस्त वाङ्गमयको अनुशासित करनेकी भूमिका भी निभाने लग जायेंगे, आज तो उनका साहित्य न्यायाधीश सरीखा बन गया है।
विडम्बनाकी बात यह है कि प्रारम्भ में इन साहित्य साधकों एवं इनकी साधनाके प्रति सम्मानका भाव प्रायः न्यून ही रहा । चन्द ही ऐसे व्यक्ति थे जो देवपूजा की भाँति इस कार्यको महत्त्व देते हैं इसी कारण ऐसे प्रयासके परिणाम इतने उत्साहवर्द्धक नहीं रहे। प्रत्येक मोर्चे पर घरसे बाहर तक गाईस्थिक एवं आर्थिक समस्याओं से जूझता विद्वान् कितनी साधना कर पायेगा यह प्रच्छन्न नहीं है। अपने जीवनके करुक्षेत्रमें ऐसे रण बांकुरे इसलिए विरल रहे हैं ।
डॉ० महेन्द्रकुमार ध्येयनिष्ठ रचनाकार थे, जो साहित्यको सोद्देश्य और सामाजिक प्रयोजन प्रेरित मानते थे। उनको प्रगतिशीलताके स्रोत बहुमुखी थे । अपने धर्मके प्रति, राष्ट्र के प्रति, समाजके प्रति उनका अनवरत लगाव उन्हें उसकी बेहतरी, सुख, समृद्धि अभय आलोकके प्रत्येक कोणको मौलिक दष्टिकोणसे खींचता है, इसीलिए न्यायके अतिरिक्त जब भी आलेख उन्होंने लिखे हैं जो "जैनदर्शन' पुस्तकके अन्तमें है उसमें उनकी अभिव्यक्ति प्रत्येक लधुखण्ड आशयको समाजके संघटित बहत्तर आशयसे जोडता है उनके आदर्शवाद में वर्ण्य विषयका इतना घुला-मिलापन है जो उनकी रचनाओंको सर्वजन सुलभ बनाकर सच्ची
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