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४| विशिष्ट निबन्ध : ३०७
बन्ध-अवस्थामें ही स्कन्धकी उत्पत्ति होती है और अचाक्षुष स्कन्धको चाक्षुष बननेके लिए दूसरे स्कन्धके विशिष्ट संयोगकी उस रूपमें आवश्यकता है. जिस रूपसे वह उसकी सूक्ष्मताका विनाशकर स्थलता ला सके; यानी जो स्कन्ध या परमाणु अपनी सक्ष्म अवस्थाका त्यागकर स्थूल अवस्थाको धारण करता है, वह इन्द्रियगम्य हो सकता है । प्रत्येक परमाणु में अखण्डता और अविभागिता होनेपर भी यह खुशी तो अवश्य है कि अपनी स्वाभाविक लचकके कारण वे एक दूसरेको स्थान दे देते है, और असंख्य परमाणु मिलाकर अपने सक्ष्म परिणमनरूप स्वभावके कारण थोड़ी-सी जगहमें समा जाते हैं । परमाणुओंकी संख्याका अधिक होना ही स्थलताका कारण नहीं । बहुतसे कमसंख्यावाले परमाणु भी अपने स्थल परिणमनके द्वारा स्थल स्कन्ध बन जाते हैं, जब कि उनसे कई गुने परमाणु कार्मण शरीर आदिमें सूक्ष्म परिणमनके द्वारा इन्द्रियअग्राह्य स्कन्धके रूपमें ही रह जाते हैं । तात्पर्य यह कि इन्द्रियग्राह्यताके लिए परमाणुओंकी संख्या अपेक्षित नहीं है, किन्तु उनका अमुक रूपमें स्थल परिणमन ही विशेषरूपसे अपेक्षणीय होता है। ये अनेक प्रकारके बन्ध परमाणुओंके अपने स्निग्ध और रूक्ष स्वभावके कारण प्रतिक्षण होते रहते हैं, और परमाणुओंके अपने निजी परिणमनोंके योगसे उस स्कन्धसे रूपादिका तारतम्य घटित हो जाता है।
एक स्थल स्कन्धमें सैकड़ों प्रकारके बन्धवाले छोटे-छोटे अवयव-स्कन्ध शामिल रहते हैं; और उनमें प्रतिसमय किसी अवयवका टूटना, नयेका जुड़ना तथा अनेक प्रकारके उपचय-अपचयरूप परिवर्तन होते हैं । यह निश्चित है कि स्कन्ध-अवस्था बिना रासायनिक बन्धके नहीं होती। यों साधारण संयोगके आधारसे भी एक स्थूल प्रतीति होती है और उसमें व्यवहारके लिए नई संज्ञा भी कर ली जाती है, पर इतनेमात्रसे स्कन्ध अवस्था नहीं बनती। इस रासायनिक बन्धके लिए पुरुषका प्रयत्न भी क्वचित् काम करता है और बिना प्रयत्न के भी अनेकों बन्ध प्राप्त सामग्रीके अनुसार होते हैं । पुरुषका प्रयत्न उनमें स्थायिता और सुन्दरता तथा विशेष आकार उत्पन्न करता है। सैकड़ों प्रकारके भौतिक आविष्कार इसी प्रकारकी प्रक्रियाके
असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्त पुद्गल परमाणुओंका समा जाना आकाशकी अवगाहशक्ति और पुद्गलाणुओंके सूक्ष्मपरिणमनके कारण सम्भव हो जाता है। कितनी भी सुसम्बद्ध लकड़ीमें कील ठोकी जा सकती है । पानीमें हाथीका डूब जाना हमारी प्रतीतिका विषय होता ही है। परमाणुओंकी अनन्त शक्तियाँ अचिन्त्य हैं। आजके एटम बमने उसकी भीषण संहारक शक्तिका कुछ अनुभव तो हम लोगोंको करा ही दिया है। गुण आदि द्रव्यरूप ही हैं
प्रत्येक द्रव्य सामान्यतया यद्यपि अखण्ड है, परन्तु वह अनेक सहभावी गुणोंका अभिन्न आधार होता है। अतः उसमें गुणकृत विभाग किया जा सकता है । एक पुद्गलपरमाणु युगपत् रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अनेक गुणोंका आधार होता है । प्रत्येक गुणका भी प्रतिसमय परिणमन होता है। गुण और द्रव्यका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध है। द्रव्यसे गुण पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वह अभिन्न है। और संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदिके भेदसे उसका विभिन्नरूपसे निरूपण किया जाता है; अतः वह भिन्न है। इस दृष्टिसे द्रव्यमें जितने गुण हैं, उतने उत्पाद और व्यय प्रतिसमय होते हैं। हर गुण अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्यायको धारण करता है, पर वे सब हैं अपृथक्सत्ताक ही, उनकी द्रव्यसत्ता एक है । बारीकोसे देखा जाय तो पर्याय और गुणको छोड़कर द्रव्यका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है, यानी गुण और पर्याय ही द्रव्य है और पर्यायोंमें परिवर्तन होनेपर भी जो एक अविच्छिन्नताका नियामक अंश है, वही तो गुण
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