Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 558
________________ ४/विशिष्ट निबन्ध : ३७५ प्रकारके पूर्वग्रहरूपी अन्धकार स्थलोंका भेदन होनेसे कुछ ऐसा लगेगा कि हमारा सब कुछ गया, पर उससे चित्र हल्का ही होगा और संशोधनका क्षेत्र मात्र विद्या और विचारकी पुनीत ज्योतिसे मानवताके विकासमें सहायक होगा। संशोधनके क्षेत्रमें हमें पूर्वग्रहोंसे मुक्त होकर जो भी विरोध या अविरोध दृष्टिगोचर हों उन्हें प्रामाणिकताके साथ विचारक जगत्के सामने रखना चाहिए। किसी संदिग्ध स्थलका खींचकर किसी पक्ष विशेष के साथ मेल बैठानेकी वृत्ति संशोधनके दायरेको संकुचित कर देती है। संशोधनके पवित्र विचारपूत स्थानपर बैठकर हमें उन सभी साधनोंकी प्रामाणिकताकी जाँच कठोरतासे करनी होगी जिनके आधारसे हम किसी सत्य तक पहुँचना चाहते हैं। पटटावली, शिलालेख, दानपत्र, ताम्रपत्र, ग्रन्थोंके उल्लेख आदि सभी साधनोंपर संशोधक पहिले विचार करेगा । कपड़ा नापनेके पहिले गजको नाप लेना बुद्धिमानीकी बा जैन संस्कृतिका पर्यवसान चारित्रमें है । विचार तो वही तक उपयोगी हैं जहाँ तक वे चारित्रका पोषण और उसे भाव प्रधान रखने में सहायक होते हैं। चारित्र अर्थात् ऐसी आचार परम्परा जो प्राणिमात्रमें समता और वीतरागताका वातावरण बनाकर अहिंसाकी मौलिक प्रतिष्ठा कर सके । व्यक्तिको निराकुलता और अहिंसक समाज रचनाके द्वारा विश्व शान्तिकी ओर बढ़ावे। इस सांस्कृतिक दृष्टिकोणसे हमें अपने अवान्तर सम्प्रदायोंकी अब तककी धाराओंको जांचना-परखना होगा और आदर्शकी जगह उन मूल विचारों को देनी होगी जो निर्ग्रन्थ परम्परा की रीढ है। भले ही उनका व्यवहार मनुष्यके जीवन में अंशतः ही हो, पर आदर्श तो अपनी ऊँचाईके कारण आदर्श ही होगा। व्यवहार उसकी दिशामें होकर अपने में सफल है। इस मल सांस्कृतिक दृष्टिकोणकी रक्षा किस समय कहाँ तक हई, इस छानबीनका कार्य बड़ी जवाबदारी का है । जैन संशोधन तभी सार्थक सिद्ध हो सकता है जब वह अपनी सांस्कृतिक भूमिपर बैठकर विचार ज्योति को जलाये । हमें अपने साहित्यमें से उन शिथिल अंशोंको सामने लाना ही होगा जिनने इस पवित्र दृष्टिकोण को धुंधला किया है और उनके कारणोंपर सयुक्ति प्रकाश भी डालना ही होगा। जैन संशोधन संस्थाएँ तभी अपनी सांस्कृतिक चेतनाको जगानेको दिशामें अग्रसर बन सकती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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