Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 497
________________ ३१४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति-ग्रन्थ बन जाती हैं उसी तरह सभी नय परस्परसापेक्ष होकर सम्यक्पनेको प्राप्त हो जाते हैं, वे सुनय बन जाते हैं । अन्तमें वे कहते हैं "जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जतेसु होंति एएसु । सा ससमय पण्णवणा तित्थयरासायणा अण्णा ॥" - सन्मति० १।५३ जो वचन विकल्परूपी नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषयका प्रतिपादन करते हैं, वह उनकी स्वसमयप्रज्ञापना है तथा अन्य -- निरपेक्षवृत्ति तीर्थंकरकी आसादना है । आचार्य कुन्दकुन्द इसी तत्वको बड़ी मार्मिक रीतिसे समझाते हैं "दोहवि णयाण भणियं जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दु णयपक्खं गिण्हदि किञ्चिवि पक्खपरिहीणो ॥” - समयसार गाथा १४३ स्वसमयी व्यक्ति दोनों नयोंके वक्तव्यको जानता तो है, पर किसी एक नयका तिरस्कार करके दूसरे नयके पक्षको ग्रहण नहीं करता । वह एक नयको द्वितीयसापेक्षरूपसे ही ग्रहण करता है । वस्तु जब अनन्तधर्मात्मक है तब स्वभावतः एक-एक धर्मको ग्रहण करनेवाले अभिप्राय भी अनन्त ही होंगे; भले ही उनके वाचक पृथक्-पृथक् शब्द न मिलें, पर जितने शब्द हैं उनके वाच्य धर्मोको जाननेवाले उतने अभिप्राय तो अवश्य ही होते हैं। यानी अभिप्रायोंकी संख्याको अपेक्षा हम नयोंकी सीमा न बाँध सकें, पर यह तो सुनिश्चितरूपसे कह ही सकते हैं कि जितने शब्द हैं उतने तो नय अवश्य हो सकते हैं; क्योंकि कोई भी वचनमार्ग अभिप्रायके बिना हो ही नहीं सकता। ऐसे अनेक अभिप्राय तो संभव हैं जिनके वाचक शब्द न मिलें, पर ऐसा एक भी सार्थक शब्द नहीं हो सकता, जो बिना अभिप्रायके प्रयुक्त होता हो । अतः सामान्यतया जितने शब्द हैं उतने' नय हैं । यह विधान यह मानकर किया जाता है कि प्रत्येक शब्द वस्तुके किसी-न-किसी धर्मका वाचक होता है । इसीलिए तत्त्वार्थभाष्य ( १।३४ ) में 'ये नय क्या एक वस्तुके विषय में परस्पर विरोधी तन्त्रों के मतवाद या जैनाचार्योंके ही परस्पर मतभेद हैं ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है कि 'न तो ये तन्त्रान्तरीय मतवाद हैं और न आचार्योंके ही पारस्परिक मतभेद हैं ?' किन्तु ज्ञेय अर्थको जाननेवाले नाना अध्यवसाय हैं ।' एक ही वस्तुको अपेक्षाभेदसे या अनेक दृष्टिकोणोंसे ग्रहण करनेवाले विकल्प हैं । वे हवाई कल्पनाएँ नहीं हैं । और न शेखचिल्लीके विचार ही हैं, किन्तु अर्थको नाना प्रकारसे जाननेवाले अभिप्रायविशेष हैं । Jain Education International ये निर्विषय न होकर ज्ञान, शब्द या अर्थ किसी-न-किसीको विषय अवश्य करते हैं। इसका विवेक करना ज्ञाताका कार्य है । जैसे एक ही लोक सत्की अपेक्षा एक है, जीव और अजीवके भेदसे दो, ऊर्ध्वं, मध्य और अधः के भेदसे तीन, चार प्रकारके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप होनेसे चार; पाँच अस्तिकायोंकी अपेक्षा पाँच और छह द्रव्योंकी अपेक्षा छह प्रकारका कहा जा सकता है। ये अपेक्षाभेदसे होनेवाले विकल्प हैं, मात्र मतभेद या विवाद नहीं हैं । उसी तरह नयवाद भी अपेक्षाभेदसे होनेवाले वस्तुके विभिन्न अध्यवसाय हैं । १ "जावइया वयणपहा तावइया होंति जयवाया ।" - सन्मति० ३।४७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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