Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 561
________________ ३७८ : ऑ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सर्वोदयके लिए तुम्हें अभी बहुत बड़ा त्याग करना है। तुम्हें अभी जगत्कल्याणकी अभय भावना भाना है । तुम्हारे जीवन में जो परहितकातरताके अंकुर है उन्हें पल्लवित और पुष्पित करना है। अतः भद्र, इस 'जिनवेष' को छोड़कर तुम दूसरा वेष लेकर यथेष्ट स्निग्ध आहारसे इस भस्मक रोगको शान्त करो। जीवन को असमयमें समाप्त करना समाधिमरणका लक्ष्य नहीं है। किन्तु उसका परम उद्देश्य तो यह है कि जब रोग निष्प्रतीकार हो जाय और मरण अनिवार्य ही हो तब मरणका स्वागत करना। जिस तरह समाधि से जिए उसी तरह समाधिसे ही मरना । भद्र, तुम्हारा रोग असाध्य नहीं है। समन्तभद्र-गुरुदेव, यह आप क्या कह रहे हैं ! क्या मैं इस दीक्षाको छोड़ दूं! क्या आप यह कह रहे हैं कि मैं अपनी जीवनभरकी साधनापर पानी फेर दूं? जिन व्रतों और शीलोंको दरिद्रकी पूंजीकी तरह मैंने सँजोया है, जिस दीपसे मेरा मन आलोकित है उसे अपने ही हाथों बुझा दूं? नहीं, मुझसे यह नहीं होगा। मरण यदि कल होना है वह आज ही हो जाय, पर मैं इस पुनीत निर्ग्रन्थताको नहीं छोड़ सकता। आखिर मात्र जीने के लिए यह छोड़ दूँ ? नहीं, यह कभी नहीं होगा । गुरुदेव, मुझे क्षमा करें। मेरी हत्या मेरे ही हाथों न कराएँ । मैं अव्रती होकर नहीं जी सकता ? गुरुदेव-भद्र, रोओ नहीं। मैं तुम्हें जो कह रहा हूँ वह एक महान् उद्देश्यके लिए। उस महासाधनाके लिए अपने मानसकी तैयारी करो। आ० विष्णुकुमारने भी अकम्पन आदि मुनियोंकी रक्षाके लिए अपना मुनिव्रत छोड़कर दूसरा वेष धारण किया था। तुम तो सदा उन्हींका आदर्श सामने रखते रहे हो । यदि आज मानव कल्याणके लिए कुछ समयको तुम्हें व्रतोंको स्थगित करना पड़ रहा है तो यह लाभ की ही बात है। तुम्हारी व्रतोंको आत्माके प्रति असीम निष्ठा ही फिर तुम्हें इससे भी उच्चतर पदपर ले जायगी। अतः वत्स, मेरी बातको स्वीकारकर तुम इस मुनिव्रतको छोड़कर शरीर स्वस्थ करो। समन्तभद्र यह सुनते ही मूच्छित हो जाते हैं । और मूर्छा में ही बड़बड़ाते हैं-नहीं"नहीं"नहीं होगा"मैं"त"व्रत"नहीं"नहीं छोड़ गा"प्राणचले जायें । उपचारसे मूर्छा दूर होते ही वे फिर बोले-गुरुदेव, मेरी रक्षा करो, तुम्हारी शरण हूँ। मुझे बचाओ। व्रतोंके छोड़ते ही कहीं मैं स्वयं नष्ट न हो जाऊँ। आज तो व्रतोंको देखकर ही मैं इस महा भस्मक ज्वालामुखीमें भी शान्त हूँ, और इसे चुनौती देता हूँ कि जला ले, मेरी हड्डियों को भी तड़-तड़ा ले, पर मैं पराजित नहीं होऊँगा । यह कहते कहते फिर उनकी आँखों के आगे अन्धेरा छा गया....." | गरुदेवने उस समय वादको बढ़ाना उचित नहीं समझ आदेशक स्वरमें कहा-अच्छा भद्र, अब व्यर्थ तर्क न करो । मेरी आज्ञा है कि 'सर्वोदय' और अन्ततः 'स्वोदय'के लिए तुम मेरे दिए हुए व्रतोंको कुछ काल के लिए मुझे सौंप दो । यह मेरी थाती है । उठो, शीघ्रता करो । यह मेरी अन्तिम आज्ञा है। समन्तभद्र-'आज्ञा' 'आप मुझे यह आज्ञा दे रहे हैं गुरुदेव ! 'तथास्तु' मैं आपके दिए हुए व्रतोंके प्रतीक रूप इन संयम-साधनों को आपकी ही आज्ञासे चरणोंमें रखता हूँ। गुरुदेव, मुझे न भूलें, इन चिह्नों को पुनः मुझे दें । मैं आपके चरणरज की छायामें आपकी आज्ञा पाल रहा है। सारा वायुमण्डल निःस्तब्ध था। समन्तभद्रकी आँखोंसे अश्रुधारा बह रही थी। वे फूट-फूटकर रो पड़े और गुरुदेवको अन्तिम वन्दनाकर चल पड़े। विजय कुछ दूर तक उनके साथ गए । विजयने देखा कि महामुनि समन्तभद्र वृक्षकी छाल लपेटकर तापसका वेष धारण किए चले जा रहे हैं"""""वे देखते ही रहे""अनायास उनके मुंहसे निकल पड़ा-'मणि कीचड़में पड़ गया, अग्नि राखसे ढंक गई' पर 'सर्वोदय' के लिए। व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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