Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 522
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३३९ उत्कृष्ट सत्त्वमैत्री अहिंसा के विकसित रूप हैं । श्रमणसन्तोंने यही कहा कि एक मनुष्य किसी भूखण्डपर या अन्य भौतिक साधनों पर अधिकार कर लेनेके कारण जगत् में महान् एतावता दूसरोंके निर्दलनका जन्मसिद्ध अधिकारी नहीं हो सकता । किसी वर्णविशेषमें उत्पन्न होनेके कारण दूसरोंका शासक या धर्मका ठेकेदार नहीं हो सकता । भौतिक साधनों की प्रतिष्ठा बाह्य में कदाचित् हो भी पर धर्मक्षेत्र में प्राणिमात्रको एक ही भूमिपर बैठना होगा, हरएक प्राणीको धर्मकी शीतल छायामें समान भावसे सन्तोषकी साँस लेनेका सुअवसर है। व्यक्ति आत्मसमत्व, वीतरागत्व या अहिंसा के विकाससे महान हो सकता है न कि जगत् में विषमता फैलानेवाले हिंसक परिग्रहके संग्रहसे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस तरह जाति, वर्ण, रंग, देश, आकार, परिग्रहसंग्रह आदि विषमतम और संघर्ष के कारणोंसे परे होकर प्राणिमात्रको समत्व, अहिंसा और वीतरागताका पावन सन्देश इन श्रमणसन्तोंने उस समय दिया जब यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड एक वर्गविशेषकी जीविका के साधन बने हुए थे । स्वर्गके टिकिट कुछ गाय, सोना और स्त्रियोंकी दक्षिणासे प्राप्त हो जाते थे, धर्मके नामपर गोमेध, अजामेध क्वचित् नरमेध तकका खुला बाजार था, जातिगत उच्चत्व, नीचत्वका विष समाजगरीरको दग्ध कर रहा था, अनेक प्रकारसे सत्ताको हथियाने के षड्यन्त्र चालू थे । उस बबर युग में मानवसमत्व या प्राणिमैत्रीका उदारतम सन्देश इन युगधर्मी सन्तोंने नास्तिकताका मिथ्या लांछन सहते हुए भी दिया और भ्रान्त जनताको सच्ची समाज रचनाका मूलमन्त्र बताया । पर यह अनुभवसिद्ध बात है कि अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा मनः शुद्धि और वचनशुद्धिके बिना नहीं हो सकती । हम भले ही शरीरसे दूसरे प्राणियोंकी हिंसा न करें पर यदि वचनव्यवहार और चित्तगत विचार विषम या विसंवादी हैं तो कायिक अहिंसा पल ही नहीं सकती। अपने विचार अर्थात् मतको पुष्ट करने के लिए ऊँच-नीच शब्द बोले जायेंगे और फलतः हाथापाईका अवसर आए बिना न रहेगा। भारतीय शास्त्रार्थोंका इतिहास अनेक हिंसाकाण्डों के खूनी पन्नोंसे रँगा हुआ है । अतः यह आवश्यक था कि अहिंसाकी सर्वाङ्गीण प्रतिष्ठाके लिए विश्वका यथार्थं तत्त्वज्ञान हो और विचारशुद्धिमूलक वचनशुद्धिकी जीवनव्यवहारमें प्रतिष्ठा हो । यह संभव ही नहीं है कि एक वस्तुके सम्बन्धमें परस्पर विरोधी मतवाद चलते रहें, अपने पक्ष समर्थनके लिए उचित, अनुचित शास्त्रार्थ होते रहें, पक्षप्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थ में हारनेवालेको तेलकी जलती कड़ाही में जीवित तल देने जैसी हिंसक होड़ें भी लगें, फिर भी परस्पर अहिंसा कायम रहे ! भगवान् महावीर एक परम अहिंसक सन्त थे । उनने देखा कि आजका सारा राजकारण धर्म और मतवादियों के हाथ में है । जबतक इन मतवादोंका वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वय न होगा तबतक हिंसा की जड़ नहीं कट सकती । उनने विश्वके तत्त्वोंका साक्षात्कार किया और बताया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्तधर्मोका भण्डार है । उसके विराट् स्वरूपको साधारण मानव परिपूर्णरूप में नहीं जान सकता । उसका क्षुद्रज्ञान वस्तुके एक-एक अंशको जानकर अपने में पूर्णताका दुरभिमान कर बैठा है । विवाद वस्तुमें नहीं है, विवाद तो देखनेवालोंकी दृष्टिमें है । काश, ये वस्तुके विराट् अनन्तधर्मात्मक या अनेकान्तात्मक स्वरूप झाँकी पा सकते । उनने इस अनेकान्तात्मक तत्त्वज्ञानकी ओर मतवादियों का ध्यान खींचा और बताया कि देखो, प्रत्येक वस्तु अनन्तगुण पर्याय और धर्मोका अखण्ड पिण्ड है । यह अपनी अनाद्यनन्त सन्तानस्थितिकी दृष्टिसे नित्य है, कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्वके रङ्गमञ्चसे एक कणका भी समूल विनाश हो जाय । साथ ही प्रतिक्षण उसकी पर्याएँ बदल रही हैं, उसके गुण-धर्मो में सदृश या विसदृश परि वर्तन हो रहा है । अतः वह अनित्य भी है । इसी तरह अनन्त गुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तुकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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