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४ / विशिष्ट निबन्ध : ३८९
द्विजकुमार - राजर्षि, हमारा भ्रम दूर हुआ । आपने तो जैसे ओंधेको सीधा कर दिया हो । हमें मालूम हुआ कि यज्ञ, यागादि क्रियाकांडों का लक्ष्य भोग है, मुक्ति नहीं । ये भौतिक उद्देश्यसे किये जानेवाले हैं आत्म-दर्शन के लिए नहीं । 'प्लवा ह्येते ऽदृढाः' ये यज्ञादि संसारसमुद्रसे तारनेके लिए समर्थ नहीं हैं । एकमात्र सद्-दृष्टि और आत्म-दर्शन ही तारक है, साधन है और धर्म है ।
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