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२२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
विषयका निश्चय भी एक खास कारण होता है । सिद्धसेन दिवाकरने अपने न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीन प्रमाणोंका विवेचन किया | अकलंकदेवने न्यायविनिश्चयमें भी तीन प्रस्ताव रखे हैं१ प्रत्यक्ष प्रस्ताव, २ अनुमान प्रस्ताव, ३ प्रवचन प्रस्ताव । अतः संभव है कि - अकलंकके लिए विषयकी पसन्दगी में तथा प्रस्ताव के विभाजन में न्यायावतार प्रेरक हो, और इसीलिए उन्होंने न्यायावतारके 'न्याय' के साथ प्रमाणविनिश्चयके 'विनिश्चय' का मेल बैठाकर न्यायविनिश्चय नाम रखा हो । वादिदेवसूरिने स्याद्वाद - रत्नाकर ( पृ० २३ ) में 'धर्मकीर्तिरपि न्यायविनिश्चयस्य यह उल्लेख करके लिखा है कि न्यायविनिश्चयके तीन परिच्छेदों में क्रमश: प्रत्यक्ष स्वार्थानुमान और परार्थानुमानका वर्णन है । यदि धर्मकीर्तिका प्रमाणविनिश्चयके अतिरिक्त भी कोई न्यायविनिश्चय ग्रन्थ है तब तो ज्ञात होता है कि प्रस्ताव विभाजन तथा नामकरणकी कल्पनामें उसीने कार्य किया है । यह भी संभव है कि - प्रमाण विनिश्चयको हो वादिदेवसूरिने न्यायविनिश्चय समझ लिया हो। इसके तीन प्रस्तावोंमें निम्न विषयोंका विवेचन है
प्रथम प्रत्यक्ष प्रस्ताव में प्रत्यक्षका लक्षण, इन्द्रियप्रत्यक्षका लक्षण, प्रमाणसम्प्लवसूचन, चक्षुरादिबुद्धियोंका व्यवसायात्मकत्व, विकल्पके अभिलापवत्त्व आदि लक्षणोंका खंडन, ज्ञानको परोक्ष माननेका निराकरण, ज्ञानके स्वसंवेदनकी सिद्धि, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञाननिरास, अचेतनज्ञान निरास साकारज्ञान निरास, निराकारज्ञान सिद्धि, संवेदनाद्वै तनिरास, विभ्रमवादनिरास, बहिरर्थसिद्धि चित्रज्ञानखंडन, परमाणुरूप बहिरर्थका निराकरण, अवयवोंसे भिन्न अवयवीका खंडन, द्रव्यका लक्षण, गुणपर्यायका स्वरूप, सामान्यका स्वरूप, अर्थ उत्पादादादित्रयात्मकत्वका समर्थन, अपोहरूप सामान्यका निरास, व्यक्तिसे भिन्न सामान्यका खण्डन, धर्मकीर्तिसम्मत प्रत्यक्षलक्षणका खंडन, बौद्धकल्पित स्वसंवेदन यो गिमानस प्रत्यक्ष निरास, सांख्यकल्पित प्रत्यक्षलक्षणका खंडन, नैयायिकके प्रत्यक्षका समालोचन, अतीन्द्रियप्रत्यक्ष का लक्षण आदि विषयोंका विवेचन किया गया है ।
द्वितीय अनुमान प्रस्ताव में अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षकी तरह अनुमानकी बहिरर्थविषयता, साध्यसाध्याभास के लक्षण, बौद्धादिमतों में साध्यप्रयोगकी असम्भवता शब्दका अर्थवाचकत्व, शब्दसंकेतग्रहणप्रकार, भूतचैतन्यवादका निराकरण, गुणगुणि भेदका निराकरण, साधन-साधनाभासके लक्षण, प्रमेयत्व हेतुकी अनेकान्तसाधकता, सत्त्वहेतुकी परिणामित्व प्रसाधकता, त्रैरूप्य खंडन पूर्वक अन्यथानुपपत्तिसमर्थन, तर्ककी प्रमाणता, अनुपलम्भहेतुका समर्थन, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचरहेतुका समर्थन, असिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभासोंका विवेचन, दूषणाभास लक्षण, जातिलक्षण, जयेतरव्यवस्था, दृष्टान्त - दृष्टान्ताभास विचार, वादका लक्षण, निग्रहस्थानलक्षण, वादाभासलक्षण आदि अनुमानसे सम्बन्ध रखनेवाले विषयोंका वर्णन है ।
तृतीय प्रवचनप्रस्ताव में - प्रवचनका स्वरूप, सुगतके आप्तत्वका निरास, सुगतके करुणावत्त्व तथा चतुरार्य सत्यप्रतिपादकत्वका परिहास, आगमके अपौरुषेयत्वका खण्डन, सर्वज्ञत्वसमर्थन, ज्योतिर्ज्ञानोपदेश सत्यस्वप्नज्ञान तथा ईक्षणिकादिविद्या के दृष्टान्त द्वारा सर्वज्ञत्वसिद्धि, शब्दनित्यत्वनिरास, जीवादितत्त्वनिरूपण, नैरात्म्यभावनाकी निरर्थकता, मोक्षका स्वरूप, सप्तभंगीनिरूपण, स्याद्वादमें दिये जानेवाले संशयादि दोषोंका परिहार, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदिका प्रामाण्य, प्रमाणका फल आदि विषयोंका विवेचन है ।
arrant तरह न्यायविनिश्वयपर भी स्वयं अकलङ्ककृत विवृति अवश्य रही है। जैसा कि न्यायविनिश्चयविवरणकार ( पृ० १२० B. ) के 'वृत्तिमध्यवर्तित्वात्' आदि वाक्योंसे तथा सिद्धिविनिश्चयटीका ( पृ० १२० A. ) में न्यायविनिश्चयके नामसे उद्धृत 'नचैतद्बहिरेव...' आदि गद्यभागसे पता चलता
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