Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 565
________________ ३८२ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ सद्दालपुत्त फिर बोला-भन्ते, सचमुच यह नियतिवाद महान् दृष्टिविष है । इसमें न हिंसा है, न दुराचार और न कोई पाप; क्योंकि हिंसा या दुराचाररूपी घटनाओंसे सम्बद्ध पदार्थों के परिणमन जब नियत हैं उनमें हेरफेरकी कोई सम्भावना नहीं तब क्यों कोई हिंसक हो और क्यों कोई दुराचारी ? यज्ञमें की जानेवाली पशु हिंसा क्यों पाप हो ? उस समय बकरेको कटना ही था, बधकको काटना ही था, छुरेको बकरेकी गर्दन में घुसना ही था आदि सभी पदार्थों के परिणमन निश्चित ही थे तो क्यों उस काण्डको हिंसाकाण्ड कहा जाय ? इसी तरह जब हमारी प्रतिक्षणकी दशाएँ अनन्तकाल तककी निश्चित हैं तब क्या पुण्य और क्या पाप? क्यों हम अहिंसादि चारित्रोंको धारण करें ? क्यों दीक्षा लें ? क्योंकि हमारा स्वयं अपने अगले परिणमनपर अधिकार ही नहीं है स्वकर्तृत्व ही नहीं है, वह तो नियत है। मानो दुनियाके पदार्थोंका अनन्तकालका टाइम-टेबुल बना हुआ हो और उसीके अनुसार यह जगत् चक्र चल रहा हो । भन्ते, आप महाश्रमण हैं, जो मेरे इस दृष्टिविषको उतारकर मुझे सम्यक् नियतानियतत्ववादकी अमृत संजीवनी दी। मुझे अपने पुरुषार्थ और कर्तृत्वका भान कराया। श्रमणनायकने सद्दालपुत्त और भिखारीको आशीर्वाद दिया। इसके बाद सद्दालपुत्तने भक्ति-भावसे श्रमणनायकको आहार दिया। भिखारी और सद्दालपुत्तके जीवनकी दिशा ही बदल गई। वे श्रमण संस्कृतिके सम और शमसे जीवन संशोधनकर अपने व्यवहारमें श्रमका महत्त्व समझे और परावलम्बनसे हटकर सच्चे स्वावलम्बी बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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