________________
४ / विशिष्ट निबन्ध : १९
न्यायविनिश्चय कारिका नं० ३८६ में प्रयुक्त 'विस्रब्धरकलङ्करत्ननिचयन्यायो पदसे, तथा कारिका नं० ४८० में 'आभव्यादकलंकमङ्गलफलम्' पदके प्रयोगसे केवल न्यायविनिश्चयकी अकलङ्ककर्तकता द्योतित हो नहीं होती; किन्तु न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराजसूरिके उल्लेखोंसे तथा आचार्य अनन्तवीर्यद्वारा सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० २०८B.) में, एवं आचार्य विद्यानन्द द्वारा आप्तपरीक्षा (पृ० ४९) में 'तदुक्तमकलङ्कदेवैः' कहकर उद्धृत की गई इसकी ५१वीं कारिकासे इसका प्रबल समर्थन भी होता है । आचार्य धर्मभषणने तो न्यायदीपिका (पृ० ८ ) में 'तदुक्तं भगवद्भिरकलङ्कदेवैः न्यायविनिश्चये' लिखकर न्यायविनिश्चयकी तीसरी कारिका उद्धृत करके इसका असंदिग्ध अनुमोदन किया है ।
प्रमाणसंग्रह की कारिका नं० ९ में आया हुआ 'अकलत महीयसाम्' पद प्रमाणसंग्रहके अकलङ्करचित होनेकी सूचना दे देता है । इसका समर्थन आचार्य विद्यानन्द द्वारा 'तत्त्वार्थश्लोकवातिक ( पृ० १८५ ) में 'अकल.रभ्यधायि यः' कहकर उद्धृत इसकी दूसरी कारिकासे, तथा वादिराजसूरि द्वारा न्यायविनिश्चयविवरण ( पृ० ८३A. ) में 'तथा चात्र देवस्य वचनम्' लिखकर उद्धृत किए गए इसके ( पृ० ९८ ) 'विविधानुविवादनस्य' वाक्य से स्पष्टरूपमें हो जाता है । २. अन्यत्रयके नामका इतिहास तथा परिचय
___ लघीयस्त्रय नामसे मालूम होता है कि यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणोंका एक संग्रह है। पर इसका लघीयस्त्रय नाम ग्रन्थकर्ताके मनमें प्रारम्भसे ही था या नहीं, अथवा बादमें ग्रन्थकारने स्वयं या उनके टीकाकारोंने यह नाम रखा, यह एक विचारणीय प्रश्न है। मालम होता है कि-ग्रन्थ बनाते समय अकलंकदेवको 'लघीयस्त्रय' नामकी कल्पना नहीं थी। उनके मन में तो दिग्नागके न्यायप्रवेश जैसा एक जैनन्यायप्रवेश
बात घुम रही थी । यद्यपि बौद्ध और नैयायिक परार्थानमानको न्यायशब्दकी मर्यादामें रखते हैं। पर अकलंकदेवने तत्त्वार्थसूत्रके 'प्रमाणनयरधिगमः' सूत्र में वर्णित अधिगमके उपायभूत प्रमाण और नयको ही न्यायशब्दका वाच्य माना है। तदनुसार ही उन्होंने अपने ग्रन्थको रचनाके समय प्रमाण और नयके निरूपणका उपक्रम किया । लघीयस्त्रयके परिच्छेदोंका प्रवेशरूपसे विभाजन तो न्यायप्रवेशको आधार माननेको कल्पनाका स्पष्ट समर्थन करता है। प्रमाणनयप्रवेशको समाप्तिस्थलमें विवृतिकी प्रतिमें "इति प्रमाणनयप्रवेशः समाप्तः । कृतिरियं सकलवादिचक्रवर्तिनो भगवतो भट्टाकलङ्कदेवस्य" यह वाक्य पाया जाता है । इस वाक्यसे स्पष्ट मालूम होता है कि -अकलंकदेवने प्रथम ही 'प्रमाणनयप्रवेश' बनाया था। इस प्रमाणनयप्रवेशकी संकलना, मंगल तथा पर्यवसान इसके अखण्ड प्रकरण होनेको पूरी तरह सिद्ध करते हैं। यदि नयप्रवेश प्रमाणप्रवेशसे भिन्न एक स्वतन्त्र प्रकरण होता तो उसमें प्रवचनप्रवेशकी तरह स्वतंत्र मंगलवाक्य होना चाहिए था। अकलंकदेवकी प्रवचनपर अगाध श्रद्धा थी। यही कारण है कि स्वतंत्र उत्पादनकी पूर्ण सामर्थ्य रखते हुए भी उन्होंने अपनी शक्ति पुरातनप्रवचनके समन्वयमें ही लगाई। उनने प्रवचनमें प्रवेश करनेके लिए तत्त्वार्थसूत्रमें अधिगमोपाय रूपसे प्ररूपित प्रमाण, नय और निक्षेपका अखंडरूपसे वर्णन करनेके लिए प्रवचनप्रवेश बनाया । इस तरह अकलंकदेवने प्रमाणनयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश ये दो स्वतंत्र प्रकरण बनाये।
यह प्रश्न अभी तक है ही कि-'इसका लघीयस्त्रय नाम किसने रखा ?' मुझे तो ऐसा लगता है कि-यह सूझ अनन्तवीर्य आचार्य की है; क्योंकि लघीयस्त्रय नामका सबसे पुराना उल्लेख हमें सिद्धिविनिश्चय टीकामें मिलता है । अनन्तवीर्य की दृष्टिमें 'प्रमाणनयप्रवेश' एक अखण्ड प्रकरण नहीं था, वे उसे दो स्वतंत्र प्रकरण मानते थे । इसका आधार यह है कि-सिद्धिविनिश्चय टीका (१० ५७२ B.) में शब्दनयादिका लक्षण करके वे लिखते हैं कि "एतेषामुदाहरणानि नयप्रवेशकप्रकरणादवगन्तव्यानि"-इनके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org