Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 584
________________ जैन न्यायविद्याका विकास • डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य प्रधान सम्पादक प्रावृत्त हम यहाँ जैन संस्कृतिके विभिन्न अंगोंमें न्यायशास्त्र के विकास पर विमर्श करेंगे । इस संस्कृतिमें धर्म, दर्शन, न्याय, साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्यौतिष आदिका समावेश है । और प्रत्येक पर गहराईके साथ विचार किया गया है । जैनधर्म भारतकी आध्यात्मिक उर्वरा भूमिमें उत्पन्न हुआ, विकसित हुआ और समृद्ध हुआ है । यह भारतीय धर्म होते हुए भी वैदिक और बौद्ध दोनों भारतीय प्रधान धर्मोसे भिन्न है । इसके प्रवर्त्तक २४ तीर्थंकर हैं; जो वैदिक धर्मके २४ अवतारों तथा बौद्धधर्मके २८ बुद्धोंसे भिन्न हैं । इन सभीका तत्त्वनिरूपण भी भिन्न-भिन्न है । हाँ, कितनी ही बातों में उनमें साम्य भी है, जो स्वाभाविक है, क्योंकि सदियोंसे ही नहीं; सहस्राब्दियोंसे एक साथ रहनेवालोंमें एक-दूसरेसे प्रभावित होना और आदान-प्रदान करना बहुत सम्भव है । पुरातत्त्व इतिहास और साहित्यकी प्रचुर साक्षियोंसे भी सिद्ध है कि जैनधर्म इन दोनों धर्मोसे पृथक् एवं स्वतन्त्र धर्म है। उसका मूलाधार उसकी विशिष्ट आध्यात्मिकता एवं तत्त्व निरूपण है । तीर्थंकर ऋषभदेव I जैनधर्म के आद्यप्रवर्तक ऋषभदेव । जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामोंसे भी समुल्लेखित किया गया है । इनके एक सौ एक ( १०१ ) पुत्र भरत ज्येष्ठ पुत्र थे, जो उनके राज्यके उत्तराधिकारी तो हुए ही, प्रथम सम्राट् भी थे, और जिनके नाम पर हमारे राष्ट्रका नाम "भारत" पड़ा । वैदिक धर्म में भी इन्हें अष्टमअवतार के रूप में माना गया । " भागवत" में " अर्हन्” राजाके रूपमें इनका विस्तृत वर्णन है। ऋग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्यमें भी इनका आदरके साथ संस्तवन किया गया है । अन्य २० तीर्थंकर Jain Education International ऋषभदेवके पश्चात् अजितसे लेकर नमि पर्यन्त २० तीर्थंकर ऐसे हुए, जिन्होंने ऋषभदेवकी तरह अपने-अपने समय में धर्म-तीर्थका प्रवर्तन किया । ऋषभदेवके बाद नमिके बीच में ऐसे समय आए, जब जैनधर्मका विच्छेद हो गया, जिसका पुनः स्थापन इन्होंने किया । और इससे वे तीर्थंकर कहे गये । नमके पश्चात् २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि अथवा नेमि हुए। ये श्रीकृष्णके बड़े ताऊ समुद्र विजय के तनय तथा उनके चचेरे भाई थे । ये बचपनसे सात्त्विक, प्रतिभावान् और बलशाली थे । इनके जीवनमें एक घटना ऐसी घटी, जिसने उनके जीवनको मोड़ दिया। जब इनकी बारात जूनागढ़ पहुँची, तो नगरके बाहर एक बाड़े में घिरे हुए पशुओंके चीत्कारको इन्होंने सुना । सुनकर रथके सारथीसे इसका कारण पूछा । सारथीने कहा- "महामान्य राजकुमार ! बारातमें जो मांसभक्षी राजा आए हैं, उनके मांस भक्षण हेतु इन्हें मारा जायेगा ।" इसे सुनते ही राजकुमार अरिष्टनेमि संसारसे विरक्त हो गये । और पशुओं को घेरे मुक्त कराकर विवाह न कराते हुए निकटवर्ती ऊर्जयन्तगिरि पर चले गए। वहाँ पहुँचकर समस्त वस्त्राभूषण त्याग दिए और दिगम्बर साधु हा गए । घोर तपस्या और ध्यान करके वीतराग सर्वज्ञ बन गए ! ५-१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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