Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 529
________________ ३४६ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ कपडा आदि बननेसे रोक नहीं सकती थी। यह 'नास्ति' धर्म ही घड़ेको घड़े रूपमें कायम रखनेका हेतु है । इसी नास्ति धर्मकी सूचना 'अस्ति' के प्रयोगके समय 'स्यात्' शब्द दे देता है। इसी तरह घड़ा एक है। पर वही घड़ा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, छोटा-बड़ा हलका-भारी आदि अनन्त शक्तियोंकी दृष्टिसे अनेक रूपमें दिखाई देता है या नहीं ? यह आप स्वयं बतावें । यह अनेक रूपमें दिखाई देता है तो आपको यह कहने में क्यों कष्ट होता है कि-'घड़ा द्रव्यरूपसे एक है, पर अपने गुण, धर्म और शक्ति आदिकी दृष्टिसे अनेक है।' कृपाकर सोचिए कि वस्तुमें जब अनेक विरोधी धर्मोका प्रत्यक्ष हो ही रहा है और स्वयं वस्तु अनन्त विरोधी धर्मोंका अविरोधी क्रीड़ास्थल है तब हमें उसके स्वरूपको विकृत रूप में देखनेकी दुर्दष्टि तो नहीं करनी चाहिए । जो 'स्यात्' शब्द वस्तुके इस पूर्णरूप दर्शनकी याद दिलाता है उसे ही हम 'विरोध संशय' जैसी गालियोंसे दुरदुराते है। किमाश्चर्यमतः परम् । यहाँ धर्मकीर्तिका यह श्लोकांश ध्यानमें आ जाता है कि “यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।" । अर्थात- यदि यह अनेकधर्मरूपता वस्तुको स्वयं पसन्द है, उसमें है, वस्तु स्वयं राजी है तो हम बीवमें काजी बननेवाले कौन ? जगत्का एक-एक कण इस अनन्तधर्मताका आकर है। हमें अपनी दृष्टि निर्मल और विशाल बनानेकी आवश्यकता है । वस्तुमें कोई विरोध नहीं है। विरोध हमारी दृष्टि में है। और इस दृष्टिविरोधकी अमृता ( गुरबेल ) 'स्यात्' शब्द है, जो रोगीको कटु तो जरूर मालम होती है पर इसके बिना यह दृष्टिविषम ज्वर उतर भी नहीं सकता। महापण्डित राहुल सांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादकी उत्पत्तिको संजयवेलट्ठिपुत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शन दिग्दर्शन ( पृ० ४९६ ) में लिखा है कि-"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्याद्वाद है । जो मालम होता है संजयवेलठ्ठिपुत्तके चार अंग वाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है।" संजयने तत्त्वों ( परलोक देवता ) के बारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकारका कहा है १-है ? नहीं कह सकता। २-नहीं है ? नहीं कह सकता। ३-है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता। ४-न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता । इसकी तुलना कीजिये जैनोंके सात प्रकारके स्याद्वादसे १-है ? हो सकता है ( स्यादस्ति ) २-नहीं है ? नहीं भी हो सकता है ( स्यान्नास्ति ) ३-है भी और नहीं भी? है भी और नहीं भी हो सकता। (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तोनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (-वक्तव्य है ) ? इसका उत्तर जैन नहीं में देते हैं। ४-स्याद् (हो सकता है ) क्या यह कहा जा सकता है (-वक्तव्य है)? नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है। ५-'स्यादस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। ६-'स्थाद नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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