Book Title: Mahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Author(s): Darbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
Publisher: Mahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP

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Page 468
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २८५ उत्पन्न हो जाती है । अतः चैतन्य आत्माका धर्म न होकर शरीरका ही धर्म है और इसलिए जीवनकी धारा गर्भसे लेकर मरणपर्यन्त ही चलती है । मरण - काल में शरीरयन्त्र में विकृति आ जानेसे जीवन-शक्ति समाप्त हो जाती है । यह देहात्मवाद बहुत प्राचीन काल से प्रचलित और इसका उल्लेख उपनिषदोंमें भी देखा जाता है । देहसे भिन्न आत्माकी सत्ता सिद्ध करनेके लिए 'अहम् ' प्रत्यय ही सबसे बड़ा प्रमाण है, जो 'अहं' सुखी, अहं दुःखी' आदिके रूपमें प्रत्येक प्राणीके अनुभवमें आता है । मनुष्योंके अपने-अपने जन्मान्तरीय संस्कार होते हैं, जिनके अनुसार वे इस जन्म में अपना विकास करते हैं। जन्मान्तरस्मरणकी अनेकों घटनाएँ सुनी गई हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इस वर्तमान शरीरको छोड़कर आत्मा नये शरीरको धारण करता है । यह ठीक है कि — इस कर्मपरतंत्र आत्माकी स्थिति बहुत कुछ शरीर और शरीर के अवयवोंके अधीन हो रही है । मस्तिष्कके किसी रोगसे विकृत हो जानेपर समस्त अर्जित ज्ञान विस्मृतिके गर्भ में चला जाता है । रक्तचापकी कमी - बेशी होनेपर उसका हृदयकी गति और मनोभावोंके ऊपर प्रभाव पड़ता है । आधुनिक भूतवादियोंने भी थाइराइड और पिचुयेटरी (Thyroyd and Pituatury ) ग्रन्थियों में से उत्पन्न होनेवाले हॉरमोन ( Hormone ) नामक द्रव्यके कम हो जानेपर ज्ञानादिगुणोंमें कमी आ जाती है, यह सिद्ध किया है । किन्तु यह सब देहपरिमाणवाले स्वतन्त्र आत्मतत्व के माननेपर ही संभव हो सकता है; क्योंकि संसारी दशामें आत्मा इतना परतन्त्र है कि उसके अपने निजी गुणोंका विकास भी बिना इन्द्रियादिके सहारे नहीं हो पाता । ये भौतिक द्रव्य उसके गुणविकासमें उसी तरह सहारा देते हैं, जैसे कि झरोखेसे देखने - वाले पुरुषको देखने में झरोखा सहारा देता है । कहीं-कहीं जैन ग्रन्थोंमें जीवके स्वरूपका वर्णन करते समय पुद्गल विशेषण भी दिया है, यह एक नई बात है। वस्तुतः वहाँ उसका तात्पर्यं इतना ही है कि जीवका वर्तमान विकास और जीवन जिन आहार, शरीर, इन्द्रिय, भाषा और मन पर्याप्तियोंके सहारे होता है वे सब पौद्गलिक हैं। इस तरह निमित्तकी दृष्टिसे उसमें 'पुद्गल' विशेषण दिया गया है, स्वरूपको दृष्टिसे नहीं । आत्मवादके प्रसंग में जैनदर्शनका उसे शरीररूप न मानकर पृथक् द्रव्य स्वीकार करके भी शरीरपरिमाण मानना अपनी अनोखी सूझ है और इससे भौतिकवादियोंके द्वारा दिये जानेवाले आक्षेपोंका निराकरण हो जाता है । इच्छा आदि स्वतन्त्र आत्माके धर्मं हैं इच्छा, संकल्पशक्ति और भावनाएँ केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं कही जा सकतों; क्योंकि किसी भी भौतिक यन्त्र में स्वयं चलने, अपने आपको टूटनेपर सुधारने और अपने सजातीयको उत्पन्न करनेकी क्षमता नहीं देखी जाती । अवस्थाके अनुसार बढ़ना, घावका अपने आप भर जाना, जीर्ण हो जाना इत्यादि ऐसे धर्म हैं, जिनका समाधान केवल भौतिकतासे नहीं हो सकता। हजारों प्रकार के छोटे-बड़े यन्त्रों का आविष्कार, जगत् के विभिन्न कार्य-कारणभावोंका स्थिर करना, गणितके आधारपर ज्योतिषविद्याका विकास, मनोरम कल्पनाओंसे साहित्याकाशको रंग-बिरंगा करना आदि बातें, एक स्वयं समर्थ, स्वयं चैतन्य - शाली द्रव्यका ही कार्य हो सकती है । प्रश्न उसके व्यापक, अणु-परिमाण या मध्यम परिणामका हमारे सामनेहै । अनुभव सिद्ध कार्यकारणभाव हमें उसे संकोच और विस्तार स्वभाववाला स्वभावतः अमूर्तिक द्रव्य मानने प्रेरित करता है । किसी असंयुक्त अखण्ड द्रव्यके गुणोंका विकास नियत प्रदेशोंमें नहीं हो सकता । १. " जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो ।" Jain Education International - उद्धृत, धवला टी० प्र० पु०, पृष्ठ ११८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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