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२० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ समानरूपसे स्थान दिया है । साथ ही उन्होंने अनेक सूत्रोंकी व्याख्या करते समय तत्त्वार्थभाष्यमान्य सूत्रपाठका भी उल्लेख किया है और इस तरह उन्होंने तत्त्वार्थवार्तिकके रचनाकालके पूर्व तक तत्त्वार्थसूत्र पर जो कुछ लिखा जा चुका था, उसको भी आत्मसात् करते हुए इसे सर्वांगपूर्ण बनाया है।
डॉ० हीरालाल जैनके शब्दोंमें "प्रस्तुत ग्रन्थको शैली न्याय-प्रचुर है-अधिकांश अतिप्रसन्न और कहीं-कहीं जटिल । इसके रचयिताने अपनेसे पूर्वको सिद्धान्त और न्याय सम्बन्धी सामग्री तथा परम्पराका अच्छा उपयोग किया है और उनसे पीछेके रचयिताओं पर इस रचनाका गम्भीर प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार जैन संस्कृतिकी अपार काल-परम्पराके बीच यह ग्रन्थ दोनों ओर अपनी भुजाओंका प्रसार किए हए सुमेरुके समान अचल खड़ा है।" ९-सिद्धिविनिश्चय टीका
आचार्य अकलंक द्वारा प्रणीत सिद्धिविनिश्चय तथा उसकी स्ववृत्ति पर आचार्य अनन्तवीर्य द्वारा लिखित टीकाका नाम "सिद्धिविनिश्चय टीका है" जो जैन-न्याय तथा तर्कशास्त्रका उच्चकोटिका ग्रन्थ है।
सिद्धिविनिश्चय तथा उसकी लेखकीय वृत्तिकी मूल प्रति लुप्त और विस्मृत हो चुकी थी। किन्तु संयोगसे आचार्य अनन्तवीर्य कृत उक्त ग्रंथको टीका पर लिखित व्याख्यामलक टीका उपलब्ध हुई । अर्थात् यह माना जाय कि सिद्धि विनिश्चयकी टीका पर अन्य दूसरे आचार्य द्वारा लिखित एक टोका-ग्रन्थ मिला, जिसके आधार पर सिद्धि विनिश्चयके मूलभागका ग्रन्थन करना जितना दुरूह कार्य था, उसे उसी मार्गका निष्ठावान पथिक विद्वान् हो अनुभव कर सकता है। किन्तु धन्य है पं० महेन्द्रकुमारजीका बहुआयामी पाण्डित्य, असीम धैर्य एवं कुशल-प्रतिभा, जिसके कारण उन्होंने असम्भवको भी सम्भव बनाकर पाण्डुलिपियों के उद्धार, सम्पादन एवं समीक्षाके क्षेत्रमें एक नया प्रतिमान स्थापित कर दिया।
सिद्धिविनिश्चयटीकाके प्रकाशनसे विद्वज्जगत्में मुक्तकण्ठसे प्रशंसा की गई । जर्मनीके प्राच्यविद्याविद् प्रो० (डॉ.) आल्सडॉर्फ, महामहोपाध्याय डॉ० गोपीनाथ कविराय, डॉ० सम्पूर्णानन्द, प्रो० (डॉ०) हीरालाल जैन, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके संस्कृत-विभागाध्यक्ष डॉ० सूर्यकान्त आदिने पण्डित महेन्द्रकुमारजीके उक्त श्रमसाव्य शोध कार्य के लिए अनेक बधाइयाँ भेजों। योगी सम्राट महामहोपाध्याय डॉ० गोपीनाथजी कविराजने उसके प्राक्कथनमें उक्त ग्रन्थको भारतीय न्यायशास्त्रकी उत्कृष्ट कृति बतलाते हुए तथा न्यायाचार्यजोको विलक्षण प्रतिभाकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हुए कहा-"पं० महेन्द्रकुमारजीने प्रमुख जैन तार्किक आचार्य अकलंकके लुप्त ग्रन्थ सिद्धिविनिश्चय' और उसकी स्ववृत्तिका उद्धार तथा आचार्य अनन्तवीर्यकी टोकाके साथ उसका समालोचनात्मक सम्पादन करके न केवल जैन-दर्शनकी महती सेवा की है, अपितु, मध्यकालीन समग्र भारतीय दर्शनका भी बड़ा उपकार किया है । अकलंकदेवका मल सिद्धिविनिश्चय एवं उसकी स्ववृत्ति अप्राप्य है, केवल उसकी परवर्ती टीकाकी एक दुर्लभ पाण्डुलिपिके आधार पर डॉ. जैनने इस अमूल्य ग्रन्थका उद्धार किया है, यत्र-तत्र अन्य साधनोंका भी उपयोग किया है । इस कार्य के सम्पादनमें जो महान् प्रयत्न एवं परिश्रम निहित है, उसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है।"
प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन काशी स्थित भारतीय ज्ञानपीठसे दो खण्डोंमें फरवरी १९५९में हुआ। प्रथम खण्डमें कुल मिलाकर २९० पृष्ठोंको अंग्रेजी प्रस्तावना एवं उसका हिन्दी अनुवाद तथा अन्य ३७० पृष्ठोंमें सिद्धिविनिश्चयटीकाका सम्पादित मूलपाठ प्रस्तुत है जिससे जल्पसिद्धि पर्यन्त पाँच प्रस्ताव ग्रथित है ।
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